मैथिली और बंगाली
बंगला आमार माँ किन्तु हिन्दी अमार मौसी। संस्कृत आ मैथिली आमार दीदी माँ(नानी) । अमार दीदी माँ र माँ होइत छै संस्कृतो।
—-बंगाली स्कॉलर ।
रवींद्रनाथ टैगोर की काव्यधारा में भारतीय संस्कृति और भाषाओं का महत्व कविगुरु आद्यप्ररूप विधापति के बाद ही रसिक और रसिया जैसी चमत्कारी कुछ नहीं है प्रमाण भानुसिंह पदावली है । खासकर, उन्होंने विद्यापति और मैथिली साहित्य काटिल वन में विचरण करने वाले बंगाली की दादी नानी की भाषा है । विद्यापति का काव्य भारतीय साहित्य का अमूल्य रत्न है, और टैगोर ने इसके प्रभाव को अपने लेखन में महसूस किया। विद्यापति के गीतों में भक्ति, प्रेम, और मानवता की जो गहरी भावना थी, उसे टैगोर ने अपनी रचनाओं में एक नया रूप दिया। वे मानते थे कि विद्यापति का काव्य न केवल मैथिली की धरोहर है, बल्कि पूरे भारतीय साहित्य का अभिन्न हिस्सा है।
मैथिली, एक प्राचीन और समृद्ध भाषा, भारतीय साहित्य के महत्वपूर्ण रूप में पहचान रखती है इसका सम्पूर्ण विश्व में प्रमाण आवास रूप में साहित्य उत्सव में शामिल हैं मानस तन में । रवींद्रनाथ टैगोर ने इस भाषा के महत्व को पहचाना और इसके साहित्यिक योगदान को स्वीकार किया। उनका विश्वास था कि किसी भी भाषा के माध्यम से यदि उसकी संस्कृति और परंपराओं को व्यक्त किया जाए, तो वह भाषा जीवित रहती है। मैथिली का काव्य, विशेषकर विद्यापति का काव्य, भारतीय साहित्य में एक अमूल्य धरोहर के रूप में जीवित रहेगा विश्व गौरव भाषा विधापति की भाषा है ।अगर टैगोर मैथिली के संदर्भ में अपनी विचारधारा व्यक्त करते, तो वे यह कहते कि मैथिली जैसे प्राचीन और साहित्यिक समृद्ध भाषाओं का अस्तित्व, केवल समाज और संस्कृति के संरक्षण के लिए ही नहीं, बल्कि एक गहरी विचारधारा और पहचान को सहेजने के लिए भी आवश्यक है। मैथिली का साहित्य, उसका गीत, उसकी कविता और उसकी भाषा भारतीय सांस्कृतिक धारा का अभिन्न हिस्सा हैं, और उनकी उपेक्षा न केवल उस भाषा के लिए, बल्कि संपूर्ण भारतीयता के लिए हानिकारक है। इसकी प्रमाणिता मिथिला क्या है व्यक्त विचार से विरोधी आंदोलन पर दमन प्रमाण है पंढ लिजिऐ!!
ब्रिटिश शासन के दौरान, जब भारतीय उपमहाद्वीप को प्रशासनिक दृष्टि से विभाजित किया गया, तो भाषा को एक महत्वपूर्ण राजनीतिक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया गया। जिनका साहित्य, संस्कृति और समाज में गहरा प्रभाव रहा है। हालांकि दोनों भाषाएँ भिन्न-भिन्न क्षेत्रों और सांस्कृतिक परिवेश से उत्पन्न हुईं, इनकी राजनीति ने इतिहास के विभिन्न मोड़ों पर दोनों भाषाओं की स्थिति और विकास को प्रभावित किया परंतु भाषा निर्माण की क्रम अन्य भाषाओं से जरूर होती है ।
बंगाली और मैथिली, दोनों ही भाषाएँ ब्रिटिश शासन के प्रभाव में आईं, लेकिन बंगाल का एक बड़ा हिस्सा राजनीतिक दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण था, खासकर कलकत्ता (अब कोलकाता) का क्षेत्र। बंगाली,फारसी अंग्रेजी के बाद प्रशासन की दूसरी प्रमुख भाषा बन गई, जबकि मैथिली का स्थान सीमित रहा यह गांवों में रहने वाले बंगालीयों की भाषा थी । यह स्थिति, भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में भी साफ देखी जाती है, जहाँ बंगाली ने एक सशक्त सांस्कृतिक और राजनीतिक पहचान बनाई, जबकि मैथिली ने उस तरह का प्रभाव नहीं छोड़ा ।
बंग की आधुनिक भाषा में मिश्रित मुगलकालीन भाषाओं से निर्माण भाषा और बंग की संस्कृति संस्कार की भाषा मैथिली की आंदोलन बंगला भाषा और साहित्य के प्रति राष्ट्रीय भावना 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के शुरूआत में विकसित हुई राजनीति अंत दिव्यप्रकाश थी,जब बंगाली बुद्धिजीवियों ने अपने सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा के लिए आंदोलन शुरू किए। बंगाली भाषियों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाई और उन्होंने बंगाली भाषा को सांस्कृतिक पहचान के रूप में प्रस्तुत किया। इस दौरान बंगाल विभाजन (1905) ने बंगाली भाषियों को एकजुट किया और एक सशक्त भाषाई और राजनीतिक पहचान स्थापित की।
उत्तर भारत की संस्कृति संस्कार की काव्य की भाषा मैथिली वर्तमान बंगाली और असमिया भाषाओं को शिक्षा, प्रशासन, और बाजार में एक सम्मानजनक स्थान नहीं मिला है, मैथिली को अनदेखा किया गया है। विशेष रूप से सम्पूर्ण उत्तर भारत की भाषा वर्तमान में बिहार में, जहां मैथिली भाषी समुदाय बड़ी संख्या में हैं, इस भाषा को न तो प्राथमिक शिक्षा में समुचित स्थान मिला है, न ही प्रशासनिक कार्यों में या मीडिया में। हालांकि, शास्त्रीय भाषा के रूप में इसे पहचान देने की हाल की कोशिशों से उम्मीद की जा सकती है कि यह स्थिति बदल सकती है। बिहार सरकार द्वारा इस संदर्भ में अनुमोदन से यह संकेत मिलता है कि मैथिली को एक शास्त्रीय भाषा के रूप में मान्यता दी जा सकती है, जो समाज में इसके महत्व को बढ़ा सकता है और इससे जुड़े लोग और अधिक सजग हो सकते हैं।
भारत की एक प्राचीन और समृद्ध भाषा मैथिली , आज अपनी स्थिति को लेकर गंभीर संकट का सामना कर रही है। विशेष रूप से बिहार, झारखंड और नेपाल के तराई क्षेत्रों में बोली जाने वाली वैश्विक स्तर पर प्रसिद्ध विभिन्न पंत की भाषा । महाकवि विद्यापति जोतिस्वर की रचनाएँ, जो मैथिली साहित्य की धरोहर मानी जाती हैं, इस भाषा की महानता को प्रमाणित करती हैं। बावजूद इसके, मैथिली को प्रशासनिक, शैक्षिक, और सांस्कृतिक संदर्भों में उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा है। यह स्थिति चिंताजनक है क्योंकि अगर जल्द ही कुछ ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो यह भाषा अपनी मधुर पहचान खो सकती है।
मैथिली को बचाने के लिए इसे शैक्षिक प्रणाली का अनिवार्य हिस्सा बनाना आवश्यक है। यदि प्राथमिक शिक्षा में यह भाषा नहीं आती है, तो आने वाली पीढ़ियाँ इसे एक बोली के रूप में ही याद करेंगी, और इसकी गहरी जड़ें समाज में कभी भी मजबूत नहीं हो पाएँगी। इसके अलावा, प्रशासनिक कामकाज में इसे प्रचलित करने के लिए कानून बनाने की आवश्यकता है। इससे न केवल इसकी सामाजिक स्थिति में सुधार होगा, बल्कि यह भी सुनिश्चित होगा कि इस भाषा का अस्तित्व लंबे समय तक बना रहे।
वर्तमान उत्तर प्रदेश की भक्तिकाव्य और विशेष रूप से संत कबीर की वाणी ने भारतीय समाज और संस्कृति में गहरे बदलाव लाए, जो आज भी प्रासंगिक हैं मुगलकालीन इतिहास अध्ययन से । भक्तिकालीन साहित्य के दौरान उत्तर भारत में दो प्रमुख गुटों का विरोध आंदोलन देखा गया – एक तरफ वह लोग थे जो वेदों और शास्त्रों को सर्वोच्च मानते थे, और दूसरी ओर वे संत-महात्मा थे जिन्होंने धर्म और भक्ति के माध्यम से समाज में समानता, तात्त्विकता और मानवता के संदेश को फैलाया ये भारत का स्वर्णिम गौरवान्वित का छन नहीं था । वेदों की ओर चलों ,ये भारत का इतिहास था !!
कबीर ने पारंपरिक धार्मिक मान्यताओं, पाखंड और आडंबरों के खिलाफ अपनी वाणी उठाई। उन्होंने सभ्यतन कर्म धर्म और मुस्लिम दोनों की आलोचना की और समाज को एक सच्चे और सरल जीवन जीने का संदेश दिया परंतु वर्तमान इसके विपरीत ब्रहामण विरोधी राजनीति से भारत में शामिल हैं । कबीर का उद्देश्य था इंसान को भीतर से जागृत करना और उसे अपने वास्तविक उद्देश्य की ओर मार्गदर्शन करना। उनका प्रसिद्ध कथन था, “गुरु ने मुझसे कहा, ‘तू भीतर देख, बाहर नहीं देखता।'”
कबीर की वाणी का यह संदेश था कि सत्य और भक्ति न तो किसी विशेष धर्म या पंथ से जुड़ी हैं, न ही किसी वर्ग विशेष से। उनके अनुसार, मनुष्य के जीवन का मुख्य उद्देश्य आत्म-साक्षात्कार है और यह आत्मा का मार्गदर्शन करते हुए तुरंत सुखी जीवन जीने के सिद्धांत को समझना है। कबीर ने अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की बात की, जिसमें वह अज्ञानता और भ्रम से मुक्ति की बात कर रहे थे। उनका यह संदेश आज भी हमारे समाज के लिए प्रासंगिक है, क्योंकि यह केवल धार्मिक नहीं, बल्कि समाजिक और मानसिक सुधार की दिशा में भी है परंतु कितनी प्रासंगिक विभिन्न पंत की जन्म भूमि कैसी अलौकिक है ।
कबीर के दर्शन में तत्काल सुखी जीवन का मतलब था, बाहरी भोगों या आडंबरों से मुक्त होकर, आत्मा के साथ जुड़कर शांति और संतोष की स्थिति को प्राप्त करना। उनके लिए भगवान या ईश्वर किसी बाहरी सत्ता के रूप में नहीं थे, बल्कि वह हमारे भीतर के सत्य के रूप में थे, जिसे जानने के लिए हमें अपने अंदर झांकने की आवश्यकता थी। यही कारण था कि उन्होंने शब्दों के माध्यम से इस सत्य का प्रचार किया और समाज को इसके प्रति जागरूक किया। इस प्रकार, कबीर की वाणी और उनका दृष्टिकोण भारतीय समाज में अंधकार से प्रकाश की ओर एक यात्रा का प्रतीक बने, जिसमें वे हमें एक सरल, सच्चे और धर्मनिरपेक्ष जीवन जीने का रास्ता कुछ काल अवधि के लिए दिखाते हैं अनंत प्रेम की भाषा नहीं ये छल की भाषा है कबीर की वाणी ।
चाणक्य ने अपने ग्रंथ अर्थशास्त्र में न केवल राज्य की राजनीति और प्रशासन के बारे में विस्तृत रूप से विचार किया, बल्कि वह समाज के हर पहलू—राजनीति, अर्थव्यवस्था, और धर्म—में सिद्धांत और नियमों का पालन करने का पक्षधर थे। उनके अनुसार, शासन व्यवस्था में कठोरता, न्याय, और समृद्धि का आदर्श स्थापित करना चाहिए। चाणक्य का दृष्टिकोण था कि राज्य की शक्ति और समृद्धि केवल सही और मजबूत नीतियों के माध्यम से ही संभव है, और इसके लिए कोई भी कड़ी से कड़ी बुध्दि रणनीति अपनाई जा सकती है।
चाणक्य के विचारों के अनुसार, “काटिल्य वन का ” एक एक मानव पशु पंछी व जीव निर्जीव और शासक अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक और उत्तरदायी हो, जहां सामाजिक और राजनीतिक नीतियाँ सही तरीके से लागू होती हों और राज्य अपने नागरिकों की भलाई के लिए काम करता हो। यदि हम इसे एक रूपक के रूप में लें, तो “काटिल्य वन अंग बंग व मंगध” एक ऐसा आदर्श हो सकता है, जिसमें शासक चतुराई से राजनीति, अर्थव्यवस्था और सामाजिक कल्याण की नीति अपनाकर राष्ट्र को समृद्ध और सशक्त बनाते हैं। यह इतिहास किसी काल्पनिक या ऐतिहासिक काल का नहीं, बल्कि एक ऐसे राज्य का प्रतीक हो सकता है जहाँ कड़ी नीतियों और रणनीतियों के बावजूद न्याय और प्रगति की भावना सर्वोपरि हो ये जननी का आशीष होगी ।
क्रमश—-
—श्रीहर्ष—-