मैं गांठ पुरानी खोलूँ क्या?
मैं गांठ पुरानी खोलूँ क्या?
तेरे कांधे सिर रख सो लूं क्या?
लोग भला क्या सोचेंगे?
इसे भुला अब रो लूं क्या?
दो बूंदों के मिलने से कपाल
पे एक अश्रुधार बही,
किंतु- परंतु को परे हटा इसमें
सब पाप पुराने धो लूं क्या?
आधा जीवन नि:शेष हुआ,
तब राम नाम की अलख जगी!
शायद अगले जीवन में बोध मिले,
दिल में उम्मीद यही अब बो लूं क्या?
© अभिषेक पाण्डेय अभि