मैं और मांझी
कितने शीत, ताप फिर वृष्टि
ये आंखों को दिखलाएगी ?
जाने विधना की गति आगे
और कहाँ ले जाएगी ?
जीवन की जलधारा में
डगमग नैया डोल रही है।
उद्विग्नता मांझी की,
मेरे मन को झकझोर रही है।
खुद बैठा पतवार छोड़ वो
हो निराश सब तजे प्रयास ।
मैं पकडूं पतवार हाथ जो
मुझ पर भी न है विश्वास ।
दोनों ही स्थितियों में,
कैसे नाव लगेगी पार ?
मुझे उतरना है इस पार
उसे उतरना है उस पार ।
साथ एक यह जिम्मेदारी
चाहे नाव लगे जिस पार
संग उतरना है दोनों को
हो इस पार या उस पार |
इसीलिए पतवार फेंक दी
हे प्रभु मेरे सिरजनहार !
अब चाहे इस पार लगाओ
या ले जाओ फिर उस पार।