#मेरे बाबूजी !
रेखा चित्र :
#मेरे_बाबू_जी
/ दिनेश एल० “जैहिंद”
संतान के लिए माता पिता ईश्वर से कम नहीं होते हैं | माता जहाँ अपनी संतान को जन्म देती है, वहीं पिता उसे चौतरफा सुरक्षा प्रदान करता है और संतान अबोध होते हुए भी अपनी चारों तरफ एक मजबूत सुरक्षा कवक्ष महसूस करता है और जैसे-जैसे अबोधता से बोधता की ओर अग्रसर होता है
| वैसे-वैसे वह दो शक्सियतों से रुबरु होता है- पहला अपनी माता से तो दूसरा अपने पिता से |
मैं भी कब अपने पिता को जाना, याद नहीं है | जब होश संभाला तो माँ व रिश्ते-नातों से जाना कि एक छोटी कदकाठी का गब्बरैला-सा शक्स मेरे पिता हैं | रंग सांवला, गोल चेहरा, नाक छोटी मगर नुकीली, आँखें बड़ी-बड़ी, चित्ताकर्षक, कंधे ऊँचे, सीना चौड़ा और सिर पर काले-काले ऊपर की ओर लहराते हुए मनमोहक बाल !
कुल मिलाकर एक खास व्यक्तित्व के धनी
मेरे बाबू जी रहे !!
कुछ पिता का डर और कुछ लोगों द्वारा बच्चों के मन नें पिता के नाम पर बैठाया हुआ डर मुझे बहुत सताता था या यूँ कहूँ कि मुझे बहुत डराता था | डर तो यहाँ तक कि बाबू जी अंदर आते थे तो मैं बाहर जाता था और वो बाहर जाते थे तो मैं अंदर आता था | भाई की भी कमोबेश यही हालत थी |उनका गुस्सैला अंदाज ऐसा कि यहाँ तक कि माँ भी डरती थी उनसे | चाचू लोगों को भी उनसे डरते देखा था मैंने | वे कभी- कभार कुपित हो जाते थे, यही कारण था कि उनके गुस्से के कहर से सभी बचना चाहते थे |
हालाँकि मेरे बाबूजी का कुछ और नाम था, पर लोग उन्हें बचपन से ढोढ़ा (ढोरवा) कहते थे | पता है आपको लोगों ने उन्हें यह नाम क्यों दिया था ?
मैंने सुना था कि उनके जन्म के पश्चात् उनका नाभि-नाल सूख नहीं पाया था, जिससे उनकी ढोढ़ी सूज गई थी और आगे चल कर फुला ही रह गया | और लोग “ढोरवा-ढोरवा” कहने लगे |
पर उनका नाम बड़ा ही सुंदर और ईश्वरीय नाम था– जगन्नाथ महतो ! हाँ, श्री जगन्नाथ महतो |
मेरे बाबूजी के जमाने में गाँवों में कुछेक स्कूल हुआ करते थे, पर मेरे बाबू जी के बाबू जी यानि मेरे बाबा जी की ऐसी पारिवारिक स्थिति नहीं थी कि वे अपने बच्चों को स्कूल पठा सकें और वे उन्हें साक्षर तक बना सकें |
इसके बावजूद मेरे बाबू जी की मौलिक बौद्धिक क्षमता कुछ अलग थी | यही कारण था कि वे समय की चक्की में पीसकर व शिक्षित लोगों के संगत में पड़कर कुछ टो-टाकर लिखना-पढ़ना सीख लिये थे |
बस, इतना ही नहीं ! दोहा, चौपाई, मुहावरें कहावतें व लोलोक्तियाँ तक वे बड़े ही सहज ढंग से याद रखते थे और बकायदे उनके अर्थ भी अच्छी तरह से समझते थे | और यहाँ तक कि गाहे-बगाहे, वक़्त-बेवक़्त उनका इस्तेमाल भी बड़े दमदार तरीके से करते थे |
जहाँ तक मुझे याद है, वे हम बच्चों पर इनका इस्तेमाल खूब करते थे–
“पढ़इबे तअ पढ़ाव ना तअ शहर में बसाव !”
“अब पछताये का होइहैं जब चिड़िया चुग गइल खेत !”
“जवन काम करे के बा ठीक से कर ले बाबू
ना तअ चिपड़ी नें घीव सुखइले कुछ ना होइहैं !”
“जो जगा सो पाया, जो सोया सो खोया !”
“जहाँ लूट पड़े वहाँ टूट पड़ो जहाँ मार पड़े वहाँ भाग चलो !”
“हर बुरे काम या अंजाम बुरा होता है अगर यकीन नहीं तो करके देख ले !”
“काल्ह करो सो आज कर, आज करो सो अब !
पल में परलय होवेगी, बहुरि करेगा कब !!”
कभी-कभी टूटी-फूटी अँग्रेजी भी झार देते थे– “डांट वास्ट द टाइम, टाइम इज मनी !”
…. तो मेरे बाबू जी ऐसे थे | कभी-कभी हम बच्चों से चूक या गलती हो जाने पर गुस्से में कह उठते थे– “हम तअ तोहनी खातिर दूनों कइनी, शहरो में बसइनीं अऊर ऊपर से पढ़इबो कइनीं !”
उल्लिखित बातों से कोई भी सहज ही अंदाजा लगा सकता है कि मेरे बाबूजी के विचार कैसे रहे होगे |
मेरे बाबूजी की एक और खास विशेषता थी — वे अपने धुन के पक्के थे, जो ठान लेते थे उसे देर-सबेर करके ही दम लेते थे | आज उनकी ही कड़ी मेहनत का फल है कि उनकी ही बनाई हुई मजबूत पृष्ठभूमि पर मैं और मेरा परिवार सुख-चैन की नींद सो रहा है |
प्राय: हर किसी को खाने का शौक होता है |
मेरे बाबू जी भी इससे अछूता नहीं रह सके थे | वे खाने के बड़े शौकीन व्यक्ति थे | नतीजतन बनवाकर भी खाते थे और स्वयम् बेहतरीन व्यंजन बना भी लेते थे |
ईश्वर झूठ न बोलवाय मुझसे | मैं आमिष हूँ, मेरा पूरा परिवार आमिष है और मेरे पिता जी आमिष थे | अंडे, मछली, चिकेन व मीट बड़े चाव से खाते थे |
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दिनेश एल० “जैहिंद”
14. 11. 2018