मेरे प्रेम पत्र 3
तीन
मेरे प्यारे भारत देश,
तुम्हें पता है माता-पिता ईश्वर का स्वरूप होते हैं, तभी तो हम इन्हें सर्वोच्च स्थान पर रखते हैं। सभी माता-पिता का सपना होता है कि उनकी औलाद उनसे बढ़कर निकले दिन-रात मेहनत कर माता-पिता बच्चों को वह सारी सुख सुविधाएं देने का प्रयास करते हैं, जो स्वयं प्राप्त नहीं कर पाते।
बचपन में मां रोज काजल का ढिगोना लगाकर विद्यालय भेजती थीं कि बेटे को किसी की नजर ना लगे। उस समय यह समझ नहीं आता था कि काजल का छोटा-सा निशान कैसे बुरी नजर से बचाता होगा। सच यह है कि काजल का ढिगोना माँ का विश्वास आशीर्वाद और स्नेह था, जो हर समय हर बुरी बला से बचाता रहा। माँ ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी, ना ही उन्हें दुनियादारी का अधिक ज्ञान है, परंतु वह आज भी चिंता की हर लकीर को पढ़ लेती हैं।
माता-पिता का यह प्रेम हमें तब तक समझ नहीं आता जब तक हम स्वयं माता-पिता नहीं बन जाते हैं। एक छोटी सी बात मुझे बहुत समय बाद समझ आई कि माँ मिठाई क्यों नहीं खाती हैं, ऐसा नहीं कि उन्हें मिठाई पसंद नहीं है, और ना ही उन्हें मधुमेह जैसी कोई बीमारी है यह तो सिर्फ इसलिए कि वह बच्चों को अपने हिस्से की मिठाई भी खिला सकें। प्रत्येक पिता यह प्रयास करता है कि बच्चे गुणवान बने, परंतु शायद इस छोटी-सी बात को जीवन भर नहीं समझ पाते, कि माता-पिता चाहते क्या है। बुरी आदतों से बचाए रखने की ख्वाहिश रखना बुरी बात तो नहीं होती। यह बात अलग है कि बुरी आदतें समय के साथ स्वरूप बदलती रहती है आज से बीस वर्ष पूर्व हमें टेलीविजन से दूर रहने के लिए प्रेरित किया जाता था। नशाखोरी से बचने की सलाह दी जाती थी। सिखाया जाता था कि कैसे भी मेहनत करके प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होना है, परंतु आज इन सबके मायने बदल गए। नशाखोरी लोगों का स्टेटस सिंबल बन गया है और अस्सी-नब्बे प्रतिशत अंक लाना बच्चों की आदत, परंतु गुणवत्ता खत्म होती जा रही है। स्कूल जाता हुआ बच्चा ईश्वर की अनुपम कृति होती है। स्कूल ड्रेस पहने, पीठ पर बैग, हाथ में बोतल, गले में परिचय पत्र लटकाये बच्चे कितने प्यारे लगते हैं।
समय के साथ-साथ बच्चों की वेशभूषा भी अपडेट होती रहती है प्राचीन काल में गुरु शिष्य परंपरा के चलते बच्चे आश्रम में जाकर शिक्षा ग्रहण करते थे जो समय के साथ छात्रावासों के रूप में परिवर्तित हो गए। उन दिनों उनकी वेशभूषा भी अलग रही होगी। समय के अनुसार परिवर्तित हुई होगी। गुरु-शिष्य के बीच समय के साथ व्यवहारिक परिवर्तन होते रहे, परंतु कुछ बातें ऐसी भी हैं, जो कभी नहीं बदली और वह है शिक्षा प्राप्त करने की मनोभावना।
शिक्षक आज भी अपने विद्यार्थी को सर्वश्रेष्ठ बना बनाने का प्रयास करता है।
मैं तुम्हें बताना चाहता हूं कि वर्तमान दौर में वह माता-पिता सबसे ज्यादा बदकिस्मत हैं, जिनके बच्चे उन्हीं के सामने मोबाइल पर गेम खेलते रहते, वीडियो देखते और बेशर्मी के साथ मोबाइल का उपयोग करते रहते हैं, और वे अपने बच्चों को रोक भी नहीं सकते। यहां यह बात समझ लेना आवश्यक है कि आजकल की पीढ़ी के बच्चों ने मां-बाप को बुरी तरह से भयभीत कर रखा है। बात यह है कि इंटरनेट के इस युग में बच्चे माता-पिता को भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करना सीख गए हैं। हर माता-पिता को लगता है कि कुछ कहने पर बच्चे कोई गलत कदम ना उठा लें और अक्सर इस तरह की घटनाएं सुनने और पढ़ने को मिल जाती हैं कि माता-पिता और अधिक भयभीत हो जाते हैं।
मुझे लगता है कि कहीं ना कहीं हम अति संरक्षणवादी हो गए हैं, इसी के चलते बच्चे अति उपयोगवादी होते जा रहे हैं।
बचपन में धूल रेत मिट्टी में खेलना, नदी-तालाब में नहाना हमारी दिनचर्या में शामिल था, पर हम कभी अपने बच्चों को यह सब नहीं करने देते लगा कि बीमार ना हो जाएँ। दोषी हम स्वयं भी हैं आज एक बात और मन में आ रही है कि बच्चे कितनी खूबसूरती से अपनी हर उचित अनुचित मांग को माता-पिता से पूरी करवा ही लेते हैं। आपने भी देखा होगा कि पढ़ाई आदि के विषय में सामान्य रूप से पूछने पर भी बच्चे बड़ी जल्दी उग्र होकर हमें कमियां बनवाने लगते हैं, ऐसी स्थिति में माता-पिता खुद को असहाय महसूस करते हैं।
होना यह चाहिए कि बच्चे माता-पिता की मनःस्थिति को समझें। वैसे भी उनकी मनोभावनाएँ बच्चों की भलाई से जुड़ी होती है। दुनिया के कोई माता-पिता स्वप्न में भी अपने बच्चों का बुरा नहीं सोच सकते, भले ही उनके हक में बच्चे कितना भी बुरा करें।
“चार बेटों को पाला था मां बाप ने,
चार से भी ना मां-बाप पा ले गए।”
समय के साथ नवीन व्यवस्था को स्वीकारना मजबूरी भी है और जरूरी भी। कुछ वर्ष पूर्व हम विद्यालयों में बच्चों को मोबाइल लाने को मना करते थे पर आज अनिवार्य है।
यह समझना जरूरी है कि हम पूरा का पूरा दोष परिस्थितियों, मोबाइल, टीवी आदि को ना देते हुए इनके सकारात्मक पहलू पर भी विचार करें। कहीं ना कहीं हम स्वयं की जिम्मेदारी से बचने के लिए बच्चों को मोबाइल पर निर्भर करते चले जा रहे हैं।
बाल मन की जरूरतों को समझें उनके हिस्से का समय उन्हें मिले और सबसे महत्वपूर्ण उन्हें प्रेरित करें परिवार के प्रेम और समर्पण को समझें तथा सकारात्मक रूप से आगे बढ़े।।
जय हिंद