मेरे प्रेम की सार्थकता को, सवालों में भटका जाती हैं।
ज़हन से आज भी, तेरी आवाज़ें टकराती हैं,
नए शब्दों में पीरो कर, नयी बातें कह जाती हैं।
दूर समंदर की गहराईयों में, डूबा था जो सूरज कभी,
नए क्षितिज़ पर, क्यों आज उसकी रश्मियाँ जगमगातीं हैं।
एहसास तेरे जाने का, एक बार फिर ये जगा जाती हैं,
जिन टुकड़ों को सालों में समेटा, बिखरी सी नज़र आतीं हैं।
अंधेरों में खो जाने का, फिर आया वक़्त ये बताती हैं,
क्यूंकि खुशियां कहाँ, इस मुक़द्दर को रास आती हैं।
आँखें सपनों से नहीं, टूटी ख़्वाहिशों से मुस्कुराती हैं,
ये मुस्कान की स्याही भी तो आंसुओं को हीं बहाती हैं।
नए क़दमों से लिपटकर, तेरी आहटें चली आती हैं,
और मेरे प्रेम की सार्थकता को, सवालों में भटका जाती हैं।