मेरी अभिलाषा है
प्रेम का प्रसार हो ,शांति का प्रचार हो ,
ना कहीं व्यभिचार हो ,ह्रदय हर इक उदार हो ,
शर्म की हो लालिमा और नेकी का विस्तार हो I
मृगतृष्णा की धूल से, ईर्ष्या के शूल से ,
स्थितियाँ प्रतिकूल से ,बुराई के मूल से ,
फ़ासला कालिमा से और भेंट हो सुख लालिमा से I
उन्मूलन भ्रष्ट निंदनीय रीत का ,अश्रु ओतप्रोत गीत का,
छलने वाले मक्कार मीत का ,जश्न द्वेष के जीत का ,
पराधीन कठपुतली नहीं ,सामराज्य मानवीय आशातीत का I