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9 Sep 2021 · 1 min read

मेरा दिलदार है अब तो

ग़ज़ल

वो जिस भी रूप में आये मुझे स्वीकार है अब तो
करूँ इनकार कैसे मैं , मेरा दिलदार है अब तो

उसी ने है गढ़ा मुझको उसी ने आ सँवारा है
हवाले कर दिया खुदको वही सरकार है अब तो

जिगर की खोलकर परतें रमाई है वहाँ धूनी
छुपा बैठा है अन्तर में मेरा हक़दार है अब तो

बरसता बन कभी बादल कभी भँवरे सा मंडराता
करुँ श्रृंगार क्यूँ नकली, वही श्रृंगार है अब तो

जिधर जाती नज़र ‘माही’ उधर तुझको ही पाती है
हुआ है तू मेरा जब से चमन गुलज़ार है अब तो

©डॉ० प्रतिभा ‘माही’

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