डॉ. प्रतिभा ‘माही’ जी द्वारा एक बेहद सुन्दर सूफ़ी काव्य संग्रह
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डॉ० प्रतिभा माहीं का प्रस्तुत काव्य-संकलन ‘ज्योतिर्पुंज’ भारतीय मनीषा की इसी उदात्त चेष्टा के संस्पर्श की प्रतीति कराता है। काव्य की गीत, नव-गीतिका, छन्दयुक्त कविता और कवित्त; इन चार विधाओं में संग्रहित 55 रचनाओं के इस संकलन में ईश्वर आराधन की सभी धाराओं के समन्वय की विराट चेष्टा है। मुल्ला दाऊद ने 1379 ई० में ‘चंदायन’ के सृजन से जिस सूफ़ीमत का सूत्रपात भक्ति के जटिल मार्ग में, प्रेम के बीजवपन करने, उसे जन-जन के लिये सुग्राह्य बनाने के लिये किया था। डॉ० प्रतिभा माही अपनी रचनाओं में आद्यान्त उसे प्रतिबिम्बित करती हैं, पोषित करती हैं। वे कृष्ण की बात करें या पीर की, शिव की बात करें या पैगम्बर की, कहीं कोई पार्थक्य नज़र नहीं आता। धर्म, जाति, पंथ से उपरत सीधी उसकी रचनाएँ पाठक के मन को सुवासित करने के सामर्थ्य से युक्त हैं।
डॉ० प्रतिभा माही का अपने आराध्य से इश्क या प्रेम दैहिक या लौकिक संकीर्णताओं से उपरत विश्व-बंधुत्व की व्यापकता के पथ पर अग्रसर है। “माही की रचनाओं को पढ़ते हुए लगता है कि हम सूफी-संत बुल्लेशाह के साथ इश्क़-ए-मजाज़ी से इश्क़-ए-हक़ीक़ी के सफर में हैं।” वह पाठक को सरूप से अरूप, अरूप से सरूप के झूले में निरन्तर अनहद संगीत की अनुभूति करवाती है। उसका समर्पण देखिए-
“तेरी बज्म में आकर हम, खुद को ही भुला बैठे।
बस तू ही नजर आता, सब तुझपे लुटा बैठे।।”
एक और बानगी–
“अब इश्क रूहानी चढ़ बोला,
इक द्वार अनोखा आ खोला।।”
वह अपने इन इश्किया झरनों में इतना खो जाती है कि कभी मीरा की तरह उसकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगती है-
“तेरा रूप गज़ब का है, हैं शब्द नहीं कोई,
गल डाल के बहियाँ मैं , बस सुपक-सुपक रोई”
कभी वह आनंद-निमग्ना होकर चेतन्य महाप्रभु सी नाचने लगती है-
“भुला बैठे खुद को पा खुशबू तेरी,
पवन से मगन हो लगे झूमने।।”
एक और रंग देखे:-
“प्रेम की गंगा बहाकर हो प्रफुल्लित झूमती,
नाचती बंसी की धुन पर, प्रीत की ये रीत है।”
जब डॉ० प्रतिभा माही अपने सामने अपने आराध्य कान्हा को पाती हैं , तो बिहारी की राधा के समान रूपासक्त राधा नहीं होती, ना हीं वो रसखान की गोपियों की तरह मुरली से सौतिया डाह रखते हुए ईर्ष्या करती है। डॉ० प्रतिभा माही तो इससे विपरीत धारा में बहती हुई खुद को उसके अधरों पर रखी मुरली के रूप में कल्पित कर आनंदित-प्रमुदित होती है। वे कहती हैं-
“मैं तो तेरी मुरलिया हूँ
राधा सी एक गुजरिया हूँ।”
डॉ प्रतिभा के सृजन में राधा सा निर्बन्ध प्रेम है, मीरा सा गहन वियोग है, महादेवी सी संघनीभूत पीड़ा है। कथ्य में सहजोबाई सी निर-उपालम्भता है, सूरदास सा विनय है, कबीर सी पूर्वग्रहों से मुक्ति है, तुलसी सा समन्वय है, नानक सी सहज-स्वीकार्यता, दादू जैसा संतत्व, रैदास सा निःस्पृहःभाव है। मेरा तटस्थ भाव से मानना है कि नैतिक मूल्यों के ह्रास, खोखली होती मानवता, तिरोहित होती सांस्कृतिक परम्पराओं, भौतिक सुखों को पाने की अंधी दौड़ में ‘ज्योति पुंज’ कृति का आगमन पाठक मन को शीतल बासंती बयार सा सुकून देगा।
मेरी उस सर्वशक्तिमान से कामना है कि वह डॉ० प्रतिभा माही की कलम को इतना सामर्थ्य प्रदान करे कि वह निर्बाध-अनवरत सृजन करते हुए इसी प्रकार की अनेकानेक कृतियों का सृजन करके साहित्य वाङ्गमय को समृद्ध करती रहें।
शुभकामनाओं सहित
डॉ मनोज भारत,
वरिष्ठ साहित्यकार एवं शिक्षाविद,
संगठन मंत्री, अखिल भारतीय साहित्य परिषद ,हरियाणा प्रान्त,
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