मेरा डर..
तुम न समझी थी
न ही समझना चाहा तुमने
मुझे, मेरे डर को
जो एक पल के लिए ही सही
मुझ से दूर होने के ख्याल से ही
उतर आता था मुझ में
खोया था मैंने ऐसे ही
उसको, जो बेहद करीब था मेरे
बरसों इसी डर के साये में
जीता रहा मैं
किसी से न प्रेम कर पाया
न ही कोशिश ही की प्रेम पाने को
फ़िर, मिली तुम
अनजाने में ही,
खिंच गया तुम्हारी ओर
बंध सी गई तुमसे
मेरे मन की डोर
पर, डर हमेशा जीता रहा मुझ में
शायद, गलत रहा होऊंगा में
पर, मुझे समझने को
डर को जीना होता, जो तुम्हें नहीं था
हासिल था, तुम्हें वो सब
जो, मुझे मिला ही नहीं
मेरे डर को मेरा फितूर, मेरी दीवानगी
समझ आया तुम्हें
फ़िर, वही हुआ जिस से डरता था मैं
तुम रूठ गईं, टूट गई वो डोर
अब, भी डरता हूँ मैं
ख़ुद से, मुझ से, प्रेम से
दोष नहीं मेरा, न तुम्हारा
बस उस डर का था, है
जो आज भी ख्वाबों के
टूटे काँच सा मेरी आँखों में
मेरे दिल में चुभता है
पल पल, हर पल
भावनायें अब भी है,
पर डर भी है
शायद रहेगा भी मरते दम तक
अब, डर में जीता हूँ मैं
या डर मुझ में
खबर नहीं, इस से उबर पाऊँगा
कभी, या डर मेरी नियति बन कर
तुम्हारी यादों के साथ रहेगा
मुझ में, मेरी आख़िरी साँस तक.!!!!
हिमांशु Kulshrestha