मानवता का है निशान ।
आंँसू आँखों से छलके कैसे?
मानवता का हृदय धड़के बंध के,
दुःख भी दुःख-सा न होता प्रतीत,
मिल जाये जब मौका कभी,
हाथ बढ़ा दो ,एहसास जगा लो,
मानवता का है निशान यही।
जीवन कैसा हो ?
किसने पूछा है?
खुद को तुम समझा लो बस,
अंँधेरा छा जाये जिस घर के अंदर,
एक दीया जरूर जला देना,
रोशन मानवता को कर देना।
रिश्ते कैसे भी हो?
कितनी भी कर्कस ध्वनि तुम्हारी,
निःस्वार्थ भाव से कर दो सिर्फ सेवा,
अलख जगेगी उस मन के अंदर,
प्रीत अति बढ़ती ही जाएगी,
मानवता की मिशाल जगायेगी।
पहचान कहाँ है?
होती है कैसे?
दया भावना होती है जिनमे,
बनते है प्रेणना के स्रोत,
एक- एक कदम बढ़ाया जाये,
पद चिंन्ह मानवता का उभरे आज।
क्यों तू रोता है ?
हताश नहीं होना,
मिटा नहीं हूँ ! न हूँ खिलौना !
साथ तेरा कोई दे जाएगा,
छाप मेरा ही छोड़ बताएगा,
कहीं छुपा हुआ हूँ सभी के अंदर।
रचनाकार –
बुद्ध प्रकाश,