माटी
माटी की आदत है मिटने की।
मिट मिट कर फिर से जुड़ने की।।
है अमर तत्व यह धरती का।
आधार इसी से जीवन का।।
जल का भंडार छिपा इसमें।
भरे स्वर्ण रजत हीरा इसमें।।
इस देश की माटी पावन है।
कण कण में इसके जीवन है।।
दिखती बाहर से ठोस मगर।
तासीर है इसकी घुलने की।।,,,,,,
मेहनत का हल जब चलता है।
तब पेट देश का पलता है।।
एक बीज छुपा था आंगन में।
धरती माता के आंचल में।।
जब बारिश की बूंदे पड़ने लगीं।
हौले से आंखें खुलने लगी।।
नव अंकुर अब है दिखने लगा।।
गोदी में मां की पलने लगा।
मेहनत से गर तुम वो दोगे।।
बीजों की फितरत उगने की।,,,,,,,,,
माटी निर्जीव अगर होती।।
वन कानन बेलें नहीं होती।
सीना जब इसका चिरोगे।।
अनमोल रतन ही निकलोगे।
माटी का है कुछ मोल नहीं।।
देकर सब लेती मोल नहीं।
ये कर्ज अदा तुम कर देना।।
उर्वर माटी को बना देना।
बारिश में है पुलकित मन।
सोंधी खुशबू से महकने की।।
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उमेश मेहरा
गाडरवारा ( एम पी)
9479611151