माँ
धुंए की तरह उड़ा दे सारी परेशानियां
“माँ” की इस कदर बरसती है मेहरबानियां
बार-बार निहारने के बाद खुद पर वहम करे
माँ” काला टीका लगाकर नज़र उतारने के सौ-सौ टोटके करे
अपना पेट काटकर बच्चों का पेट पालती है
“माँ” अबला होकर भी सब संभालती है
“माँ” थप्पड़ मार कर भी हंसा देती है
“माँ” अपना रंग, रूप, यौवन सब भुला देती है
हो दुःखी फिर भी खुशियों का ढोंग करती है
“माँ” के पैरों में छाले हो फिर भी हँसती है
मन्नतों की डोर जब टूट कर बिखर जाती है
“माँ” के टूटे पल्लू के आगे ईश्वर की मर्जी बदल जाती है
धरती पर साँसों की माला जब खत्म हो जाती है
“माँ” तब भी आसमां से दौर दुआओं का जारी रखती है
शब्द भी खुश हो जाता है
एक मात्रा जोड़कर जब “माँ” बन जाता हैं।
-शिखा शर्मा
हिमाचल प्रदेश
(“मां ” पर लिखी यह कविता मेरी स्वरचित रचना है। )