महानगर के पेड़ों की व्यथा
“महानगर के पेड़ों की व्यथा”
सड़क किनारे खड़े हुए
पेड़ों का है ये कहना।
आज बहुत ही कठिन हो गया,
पेड़ का पेड़ बने रहना।
तुमको मैं सकुशल दिखता हूँ
क्योंकि सीधा खड़ा हूँ।
पर मैं जितना ऊपर हूँ,
उतना ही नीचे गड़ा हूँ।
अतिवर्षा,अतिधूप, प्रदूषण
इन सबसे ही खूब लड़ा हूँ।
पर उपकार की खातिर ही तो
तबसे अब तक यहीं खड़ा हूँ।
सूरज का उगना अरु छिपना,
होता था मेरी आड़ में।
पर आज छिप गया हूँ मैं ही,
कूड़े कचरे के पहाड़ में।
एक खुशी हमको थी अब तक,
कि मैं ही सबसे बड़ा हूँ।
पर आज प्लास्टिक पॉलीथिन के,
पहाड़ देखकर शर्म से गड़ा हूँ।
हर समय हर तरफ निरन्तर,
धुआँ धूल शोर एवं तिरस्कार।
जमीन पर भी बिछा दी गई
सीमेंट, पत्थर, कंक्रीट अपार।
सोंचा था ! मेरे ही फूल पत्ते,
और फल जब झड़कर गिरेंगे।
धरती की मांटी में मिल करके,
फिर से मेरे गले आ मिलेंगे।
पर जिस मांटी ने सदियों से,
हम सबको अब तक पाला।
आज वो ही अछूत हो गई।
पाताल तक मेरी मौत की खबर,
पहुंचाने वाली दूत हो गई।
पुल,फ्लाई ओवर,माल के नाम,
काटे जाते हैं पेड़ हजारों।
पर हमें नहीं होती नसीब,
दो गज जमीन भी यारों।
यदि मेरी जड़ के पास खुली,
दो गज जमीन ही होती।
तो मानव की किस्मत भी,
इस कदर न रूठी होती।
ऑक्सीजन के भाव न बढ़ते,
अकालमौत के ग्राफ न चढ़ते।
मेरे बीज व मेरी कलियाँ,
भर देते सब डोलू डलियाँ।
वायुप्रदूषण भी कम होता,
प्राणवायु मय होती गलियाँ।
स्वच्छ हवा सुखप्रद संदेश,
देता सबको खुशी विशेष।