महानगरों का तिलिस्म कहें या चकाचौंध!
रोजी-रोटी की भागदौड़ में,
गांव के वह दिन,
घर खेत खलिहान,
हुआ करती थी अपनी पहचान,
जब सुविधाओं की चाहत ने,
दिया हमें झकझोर,
चले आए हम घर बार छोड़,
महानगरों की ओर!
यहां सुविधाएं जुटाने में,
लग गये धन कमाने में,
हर वस्तु यहां हमें भा रही थी,
वह हमें बहुत लुभा रही थी,
बस लग गये उसे पाने में,
धन को उस पर लुटाने में!
यह सिलसिला कभी फिर रुका नहीं,
उसको पाने को मैं जुटा वहीं,
अब मैं सब कुछ जुटा लेना चाहता था,
हर सुविधाओं को भोगना चाहता था,
इस भ्रमजाल में उलझ गया,
गांव घर से दूर हुआ,
अपनों से बना कर के दूरी,
अपनी जरुरत करने को पूरी
सुख चैन ही अपना गंवा बैठा,
अब शहरों में सुकून ही नहीं बचा!
संदेह का वातावरण है बना हुआ,
चौबीस घंटों की वह चहल-पहल,
ना जाने कौन गया इसे निगल,
हर तरफ सन्नाटा सा पसरा है,
और मुझ पर तंज़ यह कस रहा है,
भोग ले,ले और भोग ले,
इन सब सुख सुविधाओं को,
है क्यों तु अब घर पर पडा हुआ!
हर कोई हर किसी को संक्रमित समझ रहा ,
चाह कर पास नहीं बुला रहा,
कोई दुःख में है या सुख में है,
किसी को कुछ हाल नहीं सुना रहा,
दिल को यह डर सताता है,
ना जाने कब कोई मदद मांगने को आता है!
गांवों में कल तक भी सुकून बताते थे,
लोग आपस में मिलने जुलने आते थे,
लेकिन यह मुआ जंजाल वहां भी जा पहुंचा,
लोगों में दहशत मचाने को,
गांव घर में थी जो सुख शान्ति,
ये चला उसे डिगाने को,
है गांवों में सुविधाओं का अभाव बड़ा,
यदि यह वहां रुका तो,जम जायेगा,
जल्दी से फिर नहीं हट पाएगा,
गांवों का चलन ही ऐसा है,
पूरी खातिर दारी देता है,
हो सके तो इसको,
महानगरों में ही रोको,
यहीं पर इलाज करो ठोक बजाकर,
यह जाने ना पाए नजर बचाकर,
गांव यदि स्वस्थ बने रहे तो,
लाभ सभी का होगा,
खाने-पीने को,
रासन से लेकर तरकारी तक,
यही गांव जरुरत को पूरी करेगा,
गांव शहर का मेल जोल बना रहे,
गांव शहर की खाद्य आपूर्ति करता रहे,
शहर गांव गलियों की खुशहाली के लिए,
धन जुटा जुटा कर हाथ बंटाता रहे,
वर्ना गांव पिछड़ते जाएंगे,
शहर आबादी के भार को सह नहीं पाएंगे ,
लोग गांव छोड़कर शहर ही आएंगे,
शहरों की चकाचौंध का यह तिलिस्म,
ना जाने फिर किस किस विपदा से ,
हमें रुबरु कराते जाएंगे!!