महक
जिसने मुफलिसी न देखी हो
वो क्या सच में गीत भाव रचेंगे !
सोचो!रोटी कपडा मकान को लाँघ,
आगे गयी जिनकी भूख व चाह !
परंतु आज भी कई वेदनाओं में
सिसकती, कंही कतरन ढकी सांसें !
खुली अधखुली झोपड़ियों के छिद्रों से
ढ़िभरीयों की रोशनी व तारों में ही
रोटी, कपडा, मकान की तो छोड़ो
वो गुरबतों का संबल तलासते हैं
रोटी की बस एक महक तलासते हैं !
डायरी से
नीलम नवीन ‘नील’
4 जनवरी 2017