*मय या मयखाना*
डॉ अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
मय या मयखाना
कौन कहता है कि मय
मय्यसर नही मय खाने में।
डूबना चाहो उतनी मिलेगी,
उतर कर देखो तहखाने में ।
जज्ब कर लेगा गहरी बातों को
जिसके जज्बात में होगा हुनर।
यूँ तो हमने बहुत देखे है लोग
पकड़ते मछलियाँ उथले पानी में।
कटोरियों में भी चला लिया करते हैं
चलाने वाले जहाज कागज़ के।
तुम कब से करने लगे, परवाह
इन हुस्न वालों की एय मियां।
तुम तो तौफ़ीक़ की कद्र करने वाले थे
ये ख़ुशामद, एय हय, कब से करने लगे।
हुस्न वाले शिकायत, कहाँ करने देते हैं
मौका पड़ते ही ख़ुदाया कसम से।
सीधे सीधे गिरेबां पकड़ लेते हैं
नसीबा रखें सलामत हम को।
जो इनके क़द्र दान है वल्लाह
कसम ख़ुदा की, हुस्न के पेरोकार भी ।
कभी बे- मुरब्बत हुआ करते हैं ।