मन में ख्यालों के
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मन में ख्यालों के
बुल बुले उठटते हैं।
कुछ सुलझे,
कुछ अनसुलझे हैं।
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कुछ दिलों में सूल बनकर।
तो कुछ खिलते फूल बनकर।
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मन भी एक अजीब परिंदा है।
कब कहाँ उड़ जाता है।
पता ही नहीं चलता है।
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भटकता,ना जाने क्या ढूंढता है।
जितना भी मुट्ठी में कैद करो,
ये दूर-कहीं-दूर भाग जाता है।
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शांत शिथिल निर्मल बस
एक शून्य में खो जाता है।
कभी तो खामोशी का
चादर ओढ़ सो जाता है।
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कभी गुनगुनाता,
कभी फुसफुसाता,
मुझको मुझसे हीं
दूर ले जाता है।
?
क्या चाहता ?
क्या मांगता ?
ना इसे पता
ना मुझे पता।
?
मन में ख्यालों के
बुल बुले उठते हैं।
कुछ सुलझे,
कुछ अनसुलझे हैं।
????—लक्षमी सिंह??