मन प्रदूषित हुए संदली
मन प्रदूषित हुए संदली
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(गीतिका)
आधार छंद -वामहालक्ष्मी
मापनी- गालगा गालगा गालगा
समांत-अली, अपदांत ।
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मन प्रदूषित हुए संदली ।
अब न महके हृदय की गली ।।1
०
गिर न जायें यहाँ बिजलियाँ।
शक्ल झुलसें लगेंगी जली ।।2
०
अब न पछुआ सुहानी लगे ।
ब्यार पुरवा न लगती भली ।।3
०
ढेर बारूद का जल रहा ।
तोप की आग उगलें नली ।।4
०
चल रही है दहकती हवा ।
डाल की जल न जायें कली ।।5
०
राम जाते सदा ही ठगे ।
जानकी स्वर्ण मृग ने छली ।।6
०
सोचिये कुछ न कुछ कीजिये ।
नेह की फिर न सिसके लली ।।7
०००
महेश जैन ‘ज्योति’,
मथुरा ।
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