मत्तगयंत सवैया
विधा:-– मत्तगयंद छंद सवैया
[विधान:- मत्तगयंद सवैया – 7 भगण तथा अंत में 2 गुरु ]
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【रचना】
( ०१ )
नाम अनेक धरे जग पालक, देख रहे सब पुण्य मुरारी।
जो जन कर्म करे अति सुन्दर,प्रेम करें उसको बनवारी।
कारज पुण्य सदा अति शोभित, कर्म सुकर्म ही होत सुखारी।
कुत्सित काज करे नर जो वह, पाय रहा दुख दुष्कर भारी।।
( ०२ )
पाकर के तन मानुष के तुम, काम करो सुखदायक लाला !
भाव भरो उर में अति निर्मल, कर्म रहे शुभदायक लाला !
काज किये जनमानस के हित, होत वहीं फलदायक लाला !
भाग्य बने जब कृत्य सुहावन, कर्म सदा वरदायक लाला !
( ०३ )
रे ! नर कृत्य करो कछु सुंदर,पुण्य फले बन भाग्य पुनीता।
वेद – पुराण- कुरान कहे यह,बात कहे शुचि श्रीमद् गीता।
भाग्य भरोस न बैठ सदा नर, कर्म बिना यह जीवन रीता।
कर्म करें अति पावन जो नर सत्य वही शुभगे जग जीता।।
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मैं 【पं.संजीव शुक्ल ‘सचिन’】 घोषणा करता हूँ, मेरे द्वारा उपरोक्त प्रेषित रचना मौलिक, स्वरचित, अप्रकाशित और अप्रेषित है।
【पं.संजीव शुक्ल ‘सचिन’】