भोपाल गैस त्रासदी की ३६ बी बरसी
दो 3 दिसंबर 1984 की बात थी
काली घनी अंधेरी जाड़े की रात थी
यूनियन कार्बाइड कारखाने में
मिथाइल आइसोसायनाइड जहरीली गैस रिस रही थी
भोपाल में कालरात्रि मौत का तांडव कर रही थी
हवा में जहर घुल गया था गहरे कोहरे जैसा धुआं था
जहां जहां जाता था मौत की नींद सुला जाता था
रात का वक़्त था प्रशासन अशक्त था
ना कोई जानकारी थी ना ही समझदारी थी
संपर्क में आते ही आंखों में तेज जलन
सांस फूल जाती थी मिर्ची जलने जैसी खांसी थी
आंखें सूज जाती थी दम घुट रहा था
जैसे ही अफरा-तफरी मची लोग भागे इधर उधर
क्या करें इससे सब थे बेखबर
सब बदहवास भागे जा रहे थे
भागते भागते मारे जा रहे थे
जो गिर गया या छूट गया उसको भी नहीं उठा रहे थे
शासन प्रशासन सभी भाग गए थे
सभी अपने हाल पर थे
चलता रहा रात भर मौत का तांडव
लोग भागते रहे गिरते रहे मरते रहे
भोपाल लाशों से पट गया था
भोर होते होते मौत का सन्नाटा पसर गया था
परिवार के परिवार समा गए मौत के आगोश में
बच्चे ढूंढ रहे थे मां बाप को लाशों के ढेर में
अस्पताल परिसरों में मरीज और लाशें पड़े थे
लोग बेबस और निस्सहाय खड़े थे
पशु पक्षी जानवर लाशों के अंबार लगे थे
रेलें बसें सभी यातायात बंद पड़े थे
आंखों में ठंडा पानी और बर्फ लगा रहे थे
अपनी बेबसी और लाचारी पर रो रहे थे
ऐसे जहरीले डरावने समाचार दुनिया में
भोपाल के चल रहे थे
दूसरे-तीसरे दिन जल रही थीं सामूहिक चितायें
सामूहिक दफन क्रियाएं
दिल दहला देने वाले दृश्य
विचलित कर देने वाले श्रव्य
हादसे से उबर भी नहीं पाए थे
कि अफवाह फैल गई, अब तो पूरी टंकी ही फट गई
सारे भोपाल में फिर अफरा तफरी मच गई
लोग बदहवास भाग रहे थे
बच्चा गाड़ी से गिरा दूसरी गाड़ी चढ़ गई
नन्ही जान फिर निकल गई
हवा पानी सब्जियां सब दूषित हो गए
लोग भोपाल छोड़कर बाहर भाग गए
सालों लग गए थे हालात सामान्य होने में
अपनों को खोने का गम भुलाने में
गैस खाए हुए लोग आज भी त्रासदी झेल रहे हैं
तरह तरह की गंभीर बीमारियों के शिकार
तिल तिल मर रहे हैं
अंतहीन दर्दीली लंबी कहानी है
कंपनी शासन प्रशासन की लापरवाही की निशानी है
हजारों मारे गए पांच लाख प्रभावित हो गए
विश्व की भीषण औद्योगिक त्रासदी की कहानी है
हे भगवान ऐसी त्रासदी कभी ना आए
मेरी परमात्मा से हैं यही दुआएं
सुरेश कुमार चतुर्वेदी