भारतीय शिक्षा नीति और संबंधित इतिहास
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शिक्षा ,समाजिक चेतना,विकास, राष्ट्रवाद,मानविक आवश्यकताओं और सामाजिक समस्याओं को जानने समझने के लिए आवश्यक है।
मानव सभ्यता के विकास में शिक्षा का अहम योगदान रहा है और शिक्षित व्यक्ति सदैव सम्मान पात्र रहे हैं।
भारतीय धर्म शास्त्रों में प्राचीन काल से ही शिक्षा का महत्व,उद्देश्य इत्यादि पर अत्यधिक बल दिया गया है।
जैसे जैसे मानव सभ्यता का विकास हुआ शिक्षा के आयाम परिस्थिति के अनुरूप बदलते गए।
प्राचीन काल में विश्व गुरु कहे जाने वाले हिंदू राष्ट्र भारत में शिक्षा को विभिन्न आयामों और कसौटियों पर खड़ा उतारने के लिए प्रत्येक काल खंड में, शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ करने के अथक प्रयास किए गए । एक समय में भारत में श्रुति शिक्षा व्यवस्था हुआ करता और गुरुकुल में छात्र गुरु के मुख से श्लोक पाठ इत्यादि श्रवण करके अपने ज्ञान, विज्ञान ,तर्क, गणित के ज्ञान प्राप्त किया करते थे।
धीरे धीरे व्यवस्थाएं बदली और सुनकर कंठाग्र किए जा रहे वेदों को भी हस्त लिखित पुस्तकों में संकलित किया जाने लगा।
करीब 700 वर्ष ईसा पूर्व में ,तक्षशिला विश्वविद्यालय वर्तमान पाकिस्तान के रावलपींडी से 18 मील उत्तर की ओर स्थापित हुई। विश्वविद्यालय के बारे में कहा जाता है कि श्री राम के भाई भरत के पुत्र तक्ष ने उस नगर की स्थापना की थी और उन्हीं के नाम पर विश्विद्यालय को नामित किया गया। यह विश्व का प्रथम विश्विद्यालय था। तक्षशिला विश्वविद्यालय में पूरे विश्व के 10,500 से अधिक छात्र अध्ययन करते थे। यहां 60 से भी अधिक विषयों को पढ़ाया जाता था।
तक्षशिला विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद अनौपचारिक रूप से भारत में शिक्षा व्यस्था नैतिक स्वरूप ले लिया।
यह शिक्षा नीति सकल विश्व के समुचित प्रबंधन के लिए आधुनिक काल के आधार को प्रबल किया और भारतीय शिक्षा नीति से समस्त विश्व को प्रेरणा मिली।
आगे चलकर
महर्षि पाणिनी और चाणक्य जैसे कई विद्वानों ने भारत में राष्ट्रीयता को बढ़ावा देते हुए शिक्षा नीति को प्रगाढ़ किया।
धीरे धीरे यूनान और यवन में अराजक तत्वों की उदंड चेतनाएं जागृत हुई और विश्व गुरु कहे जाने वाले भारत के बुरे दिन आरंभ हो गए,,बिखरते भारत को पुन: अखंड भारत का स्वरूप देकर स्थापित करने में महर्षि चाणक्य के शिक्षा नीति और राजनीति ने रंग लाया मगध साम्राज्य से नंद वंश का अस्तित्व खत्म होने के बाद,चंद्र गुप्त मौर्य और बिंदुसार के बाद शासन महान सम्राट अशोक के हाथ में आ गया।अशोक कुशल शासक थे और उन्होंने अखण्ड हिंदू राष्ट्र भारत की स्थापना की। उस समय भारत में सनातन धर्म के एक पंथ के रूप में बौद्ध धर्म अस्तित्व में आया था । मौर्य साम्राज्य के शासक अशोक कलिंग से युद्धकाल के समय में हुए हिंसा से आहत होकर बौद्ध धर्म की दीक्षा लिए। उनके वंश के अंतिम शासक वृहदर्थ के काल तक जाते जाते ,भारत के शिक्षा नीति में हिंदुत्व और राष्ट्रवाद खत्म होने के कगार पर जाने लगी।।
पुनः अखंड भारत के स्थापना हेतु एक ब्राह्मण शासक पुष्यमित्र शुंग ने शुंग राजवंश की स्थापना की ,,जिनके शासन काल में भारत पुनः उन्नत शिक्षा नीति का पोषक बना, कई गुरुकुल पुनः स्थापित किए गए और शिक्षा नीति में राष्ट्रवाद और हिंदुत्व जागृत होने लगा।
शुंग राजवंश के पतन के बाद भारत छोटे छोटे राज्यों और जनपदों में बंटने लगा,जिसका परिणाम बहुत ही बुरा हुआ,कंधार जैसे प्रदेश भारत से अलग हो गए।उधर मंगोल और अफ़गानी लुटेरे प्रबल होने लगे ,छोटे छोटे टुकडों में बंटे भारत पर विदेशी आकर्मण का दौड़ शुरू हो गया ।
भारतीय राजाओं में निजता की भावना तो जागृत हुई लेकिन एक नकारात्मक रूप लेकर,कुछ एक राजा ही हिंदुत्व के मौलिक नीति कर चलते थे।जिसका प्रभाव ये हुआ कि अराजक ,उदंड और वहशी भावनाओं के पोषक मुगल( जिसे कुछ विद्वानों ने मलेच्छ भी कहा) भारत को तोड़ने लगे,,और उन्होंने तोड़ते तोड़ते भारतीय शिक्षा नीति को ध्वस्त कर दिया, गुरुकुल और गुरुकुल चलाने वाले मंदिरों को तोड़कर।
मुगलों के बाद भारत में छल पूर्वक ब्रिटिश हुकूमत का नींव पड़ा।
उस काल खंड में भारतीय शिक्षा व्यवस्था अत्यधिक उदार थी । छात्रों को घर में काम काज करने के लिए छुट्टियां दी जाती थी। पाठशालाएं रबी फसल और खरीफ़ फसल के काटने के समय और बोने के समय बंद कर दिए जाते थे और फसल कट जाने के बाद पाठशाला पुनः शुरू हो जाती थी।
ब्रिटिश हुकूमत लिट्रल थी तो उसने नैतिक रूप से भारत को हजारों वर्षों तक गुलाम बनाने के लिए कई षड्यंत्र रच डाले, उन्हें लगता था कि भारतीय शिक्षा नीति से उदारता, हिंदुत्व,साधना ,योग, राष्ट्रवाद और वैज्ञानिकता को खत्म किए बिना भारत को उपनिवेश(अर्थात् गुलाम) बनाना असंभव है । ऐसे में भारतीय शिक्षा व्यवस्था और शिक्षा नीति को समाप्त करने हेतु लॉर्ड मैकाले के अध्यक्षता में ब्रिटिश सरकार के द्वारा समिति गठित किया।
हज़ारों आक्रमण और यातनाओं का दौड़ सहने के बावजूद भारत में जो कुछ भी बचे कूचे गुरुकूलों थे उन्हें अवैधानिक करार देते हुए खत्म कर दिया गया, इतना ही नहीं सनातन धर्म और सनातन धर्म की अन्य शाखाएं (सिख,जैन इत्यादि) के धर्म ग्रंथों से छेड़छाड़ कर भारतीय लोगों को पढ़ाया गया ताकी भारत में सनातन धर्म और सनातन धर्म के अलग अलग पंथ के लोगों के मध्य आपसी द्वेष की भावना भड़के।
भारत के आजादी के बाद, समय के अनुरूप शिक्षा नीति में बदलाव किए गए ।जो धीरे धीरे प्रभावशाली सिद्ध हो रहे हैं और आवश्यकता के अनुरूप शिक्षा नीति में संशोधन भी हो रहा है।
किंतु, उन्नत राष्ट्रवाद और वैदिकता को और भी बढ़ावा देने की आवश्यकता है ।आजाद भारत में शिक्षा नीति संतोष जनक जरूर है ,लेकिन पूर्ण संतुष्टि तभी मिल पाएगी जब
भारतीय शिक्षा नीति, भारत के युवाओं को न केवल ,आर्थिक, राजनैतिक,धार्मिक,सामाजिक,, चेतनाओं और समस्याओं से अवगत कराए ,बल्कि इन समस्याओं से निपटने हेतु, उन्हें आगे आने के लिए प्रोत्साहित करना भी आदर्श शिक्षा नीति का मौलिक तत्व है।
भारत को हरेक काल खंड में अखण्ड बनाए रखने के लिए, महर्षि चाणक्य जैसे नैतिक पुरुष , चंद्र गुप्त मौर्य,महान सम्राट अशोक और पुष्य मित्र शुंग जैसे कुशल प्रशासकों की आवश्यकता होगी ,और इसके लिए हमारे शिक्षा नीति के मौलिकता में महान भारतीय ग्रन्थों (गीता ,उपनिषद,रामायण इत्यादि) को मूल तत्व बनाने के दिशा में कार्य करते रहना चाहिए।
©®दीपक झा “रुद्रा”