भांथी* के विलुप्ति के कगार पर होने के बहाने
भांथी जैसे विलुप्ति के कगार पर पहुंचे देसी यंत्र
किसी किसी लोहार बढ़ई के दरवाजे पर अब भी गाड़े और जीवित बचे मिल सकते हैं गांवों में
जो कि सान चाहती औजारों को टहटह लाल तपा देती है
सान जो लोहे के भोथरे सामानों को शान देता है
शान भले ही किसी श्रमण बढ़ई-मिस्त्री के
ख़ुद के जीवन में लगना बाक़ी रह गई हो
लोहे का यह टहटह लाल तपना भोथरी से भोथरी धार को भी
हथौड़े की चोट सी अत्यंत चोखा बना डालता है
तब इस भांथी की रबड़ से बनी दुम
जब फैलती सिकुड़ती होती है
और इससे निकली तेज हवा के झोकों के आगे रखे कोयले से
आग बनने के क्रम में निकलता है पहले खूब धुआँ
तिसपर भी
अपनी बुजुर्गियत वाले वय में पहुंचे
दम को उखाड़ते और आँखों को और तबाह करते इस धुएं को
थक हार कर सहना पड़ता ही है
एक बढ़ई–लुहार को
मशीन के जमाने में
बाज साधनहीन बढ़ई मिस्त्री
अब भी कूटते हैं हंसुआ के दांत मैनुअली
पिजाते हैं हथौड़े, नेहाय
और रेती की मदद से
खुरपी, गड़ासा और हल के फाल की धार
गाँव की खेती को सँभालने के औजारों को दुरुस्त करने वालों में
फसलों की कमैनी, निकौनी, पटौनी, कटनी और दौनी को धार देने वालों में
जीवित सबसे पुरानी पीढ़ी और वय के बुजुर्ग बढ़ई औ’ लोहार की
अहंतर भूमिका हो चली है अब
क्योंकि उनके बेटे पोते हों या बढ़ई घरों की नई पीढ़ी के अन्य युवक
चूंकि गाँव में पुश्तैनी धंधे में रह रम कमाना अब
बेगारी बेरोजगारी के बराबर से ज्यादा नहीं रह गया है
खुदवजूद और ठोस जीविकोपार्जन की तलाश में
अब नये नये रोजगारों में लग गयी है
अथवा नगरों के हवाले कर आई है
इन श्रमणों की नई पीढ़ी अपना हुनर
जहां कहीं पर्याप्त ऊंचा मिलता होता है इन्हें मेहताना
हालांकि यह मेहताना भी कोई उनके कुशल कामगार होने का
उचित श्रम मूल्य भरसक ही होता है
और यह तय होना भी अलग अलग मालिकों के यहाँ मनमाना ही होता है।
*कुछ इलाकों में इसे ’धौंकनी’ कहते हैं