बैरागी
उस बंद राह पर एक खंडहर है,
कुछ दबा भी दिल के अंदर है,
मैं कहूं, तो कोई बात बनेगी,
ना दिन बचेगा, ना रात रहेगी,
ना बची खुची वो साख रहेगी,
बस हाथ में खाली राख रहेगी।
उस राख को माथे मढ़ कर के,
क्या बन जाऊँ मैं बैरागी?
ओढ़ के तन पर सूती चोला!
गीत सुनाऊँ बनकर रागी।
उसकी सूरत ही दिखती है,
जब विरह मौन में रहता हूँ।
© अभिषेक पाण्डेय अभि