बेबसी
इतने क़रीब मगर फिर भी कितने दूर हैं हम
उलझनों के वज़न तले दबे मजबूर हैं हम।
तुम्हारे मख़मल से मुलायम होंठों को,
अपने होंठों से छूना चाहता हूँ मैं ,
तुम्हारे बोसे को चखना चाहता हूँ मैं।
तुम्हारे गुदाज कफ़लों पे अपने हाथ रखकर
तुम्हें अपनी बाहों में खींचना चाहता हूँ मैं,
सुनाना चाहता हूँ इस दिल की तेज़ धड़कनों को,
जो तुम्हें छूकर और बेकाबू हो जाते हैं।
मगर अफ़सोस ये मुम्किन नहीं हो पाता
कभी दुनिया का डर तो, कभी बेबसी बेवजह की।
-जॉनी अहमद ‘क़ैस’