बेतरतीब
स्वार्थ से एकदम परे
मूल और कूल
ना बनावट के उसूल
ना भूलभुलैया कुबूल
यानी बेतरतीब चीजें
सारे सलीके को
फिर दूर खड़े रहने दीजे।
जैसे सुदूर जंगलों में
रहने वाले लोग
अपनी मर्जी से
बहने वाली नदियाँ
खेतों के मेढ़ों में उगे
टेढ़े- मेढ़े पेड़
बाड़ी से लाई गई
बेतरतीब रखी सब्जियाँ
गॉंव के सकरे रास्ते
जिसमें गुजर गई सदियाँ।
ये हमेशा सरल वो सीधे
सच्चे और अच्छे होते हैं
तभी तो देहात के लोग
बड़े मजे में बिन्दास जीते हैं।
(मेरी सप्तम काव्य-कृति : ‘सतरंगी बस्तर’ से..)
डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति
साहित्य वाचस्पति
साहित्य और लेखन के लिए
लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड प्राप्त।