‘बेटियाॅं! किस दुनिया से आती हैं’
ममता के सदन में
किलकारियाॅं भर जाती हैं।
अपनी नव-चेतना से
दुश्वारियाॅं हर जाती हैं।
रौनक से घर को भर,
हॅंसती-खिलखिलाती हैं।
बेटियाॅं भी जाने किस
दुनिया से आती हैं।।
कभी ना झुंझलाती,
न बातों में उलझाती हैं।
समय पर लाडो बन,
दवा भी खिलाती हैं।
कभी-कभी यूॅं ही बस
गले लग जाती हैं।
बेटियाॅं भी जाने किस
दुनिया से आती हैं।।
जीवन के पेंचोख़म
पल में समझ जाती हैं।
अस्मत पर आती तो
शिला बन जाती हैं।
दुश्मनों के सामने न
हौंसला डिगाती हैं।
बेटियाॅं भी जाने किस
दुनिया से आती हैं।।
हुलस-हुलस दादी औ
नानी को रिझाती हैं।
छोड़ती हैं मायका तो
सभी को रूलाती हैं।
नैहर की देहरी पर
शीश वो नवाती हैं।
बेटियाॅं भी जाने किस
दुनिया से आती हैं।।
कितनी दुलारी हों
भूल मगर जाती हैं।
बंदिशें ससुराल की भी
खूब वो निभाती हैं।
सेवा में अपनों की
ख़ुद को बिसराती हैं।
बेटियाॅं भी जाने किस
दुनिया से आती हैं।।
मायके की यादें
ससुराल में छुपाती हैं।
बिना गिले-शिकवों के
रिश्ता हर निभाती हैं।
पीढ़ियों को जोड़ने में
ख़ुद भी बिखर जाती हैं।
बेटियाॅं भी जाने किस
दुनिया से आती हैं।।
पूरी कर देती हैं,
सपनों की अल्पना को।
ललकार देती हैं,
व्यर्थ की हर वर्जना को।
रूढ़ियों के पर्वतों को
चीर, पथ बनाती हैं।
बेटियाॅं भी जाने किस
दुनिया से आती हैं।।
स्वरचित
रश्मि लहर
लखनऊ