बेआबरू थे हम…
बेआबरू थे हम…
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बड़े बेआबरू थे हम तो…
वर्षों जुल्म को पहचाना नहीं ।
हम पास खड़े मुस्कराते रहे ,
वो चेहरे की मासूमियत को चुराते गए ।
खींच कर मन में, जाति-धर्म की लकीरों को,
वो अपना काम बखूबी करते गए ।
हमने सोचा कि,चांद हथेली पर आएगा एक दिन,
वो हमें बंदिशों और बेड़ियों में उलझाते गए ।
फूट करो और राज करो कि नीति पर ,
वो अब भी कायम है वतन-फ़रोशी को ।
ख्वाब जितने थे, सारे जल गए ,
और हम हर दिन,एक ख्वाब नया बुनते गए ।
जिंदा रहने की ख्वाहिश में ,
जायज हकों के लिए हम वर्षों लड़ते रह गए ।
जिंदगी के संग-संग चलने की ख्वाहिश में ,
अश्क हर गमों का, खुशी से पीते गए ।
कितनी मुद्दत से मिली थी, आजादी जो ,
पर अक्ल तो अपना डाला उन गोरों का ।
क्यों न भुला पाए हम,उनके गुलामी की दास्ताँ ,
जो उनकी ही खींची हुई लकीरों पर, कदम रखते गए ।
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – १८ /१२ / २०२१
शुक्ल पक्ष , चतुर्दशी , शनिवार
विक्रम संवत २०७८
मोबाइल न. – 8757227201