बूंद
आज यूंही तुम दिखे
विच्छन्न
ओस की बूंद से
कोहरे में सिमट कर
कहीं थम गये
तुम बहती हवा से
सतत्
अनवरत
बढ़ते गये
सत्य से नव कर्म
बने तुम
आहिस्ता आहिस्ता
भ्रम वश
आलिंगन हो जाते हो
मनोज शर्मा
आज यूंही तुम दिखे
विच्छन्न
ओस की बूंद से
कोहरे में सिमट कर
कहीं थम गये
तुम बहती हवा से
सतत्
अनवरत
बढ़ते गये
सत्य से नव कर्म
बने तुम
आहिस्ता आहिस्ता
भ्रम वश
आलिंगन हो जाते हो
मनोज शर्मा