बुरे फँसे टिकट माँगकर (हास्य-व्यंग्य)
बुरे फँसे टिकट माँगकर (हास्य-व्यंग्य)
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जब हमने साठ-सत्तर कविताएं लेख आदि लिख लिए तो हमारे मन में यह विचार आया कि एमएलए अर्थात विधायक के चुनाव में खड़ा होना चाहिए। पत्नी से जिक्र किया। सुनते ही बोलीं” कौन सा भूत सवार हो गया ?”
हमने कहा “भूत सवार नहीं हुआ है। वास्तव में चुनाव उन लोगों को लड़ना चाहिए जो देश और समाज के बारे में चिंतन करते हैं और देश समाज की समस्याओं को सुलझाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं ।”
पत्नी ने कहा “देश और समाज की चिंता तो केवल नेता लोग करते हैं। तुम तो केवल कवि और लेखक हो।”
हमने कहा” कवि और लेखक ही तो वास्तव में देश के सच्चे नेता होते हैं ।”
इसके बाद पत्नी बोलीं” जो तुम्हारे दिल में आए, तुम करो। लेकिन चुनाव लेख और कविताओं से नहीं लड़े जाते । इसके लिए नोटों की गड्डियों की आवश्यकता होती है।”
हमने कहा “यह पुराने जमाने की बातें हैं। अब तो विचारधारा के आधार पर समाज में जागृति आती है। वोट बिना डरे वोटर देता है और जो उसे पसंद आता है उसे वोट दे देता है। इसमें पैसा बीच में कहॉं से आता है?”
पत्नी बोलीं” ठीक है, जो तुम समझो करो । लेकिन मेरे पास एक पैसा भी चुनाव में उड़ाने के लिए नहीं है। तुम भी ऐसा मत करना कि घर की सारी जमा पूँजी उड़ा दो, और बाद में फिर पछताना पड़े ।”
हमने कहा “ऐसा कुछ नहीं होगा । हमारे पास अतिरिक्त रूप से छब्बीस हजार रुपए हैं। इतने में चुनाव सादगी के आधार पर बड़ी आसानी से लड़ा जा सकता है।”
लिहाजा हमने एक प्रार्थना पत्र तैयार किया और उसमें अपनी साठ-पैंसठ कविताओं और लेखों की सूची बनाकर संलग्न की तथा पार्टी-दफ्तर में जाने का विचार बनाया । टाइप करने- कराने में सत्तर रुपए खर्च हो गए फिर उसकी फोटो कॉपी बनाई उसमें भी बीस रुपए खर्च में आए । पार्टी दफ्तर के जाने के लिए ई रिक्शा से बात की ।
“कहाँ जाना है ?”
हमने कहा ” पुराने खंडहर के पास जाना है ।”
सुनकर रिक्शा वाले ने हमारे चेहरे को दो बार देखा और कहा “वहाँ न रिक्शा जाती है , न ई रिक्शा । वहॉं तो कार से जाना पड़ेगा आपको।”
हमें भी महसूस हुआ कि हम जो सस्ते में काम चलाना चाहते थे , वह नहीं हो सकता। खैर, एक हजार रुपए की आने -जाने की टैक्सी करी और हम पार्टी- दफ्तर में पहुंच गए ।वहाँ पहुंचकर कार्यालय में नेता जी से मुलाकात हुई। बोले” क्या काम है ?”
हमने कहा” चुनाव लड़ना है ! टिकट चाहते हैं।”
नेताजी मुस्कुराने लगे। बोले” चुनाव का टिकट कोई सिनेमा का टिकट नहीं होता कि गए और खिड़की पर से तुरंत ले लिया। इसके लिए बड़ी साधना करनी पड़ती है ।और फिर आपके पास तो जमापूॅंजी ही क्या है ?”
हमने कहा” यह हमारा प्रार्थना पत्र देखिए। हम ईमानदार आदमी हैं । चुनाव जीत कर दिखाएंगे । छब्बीस हजार रुपए हमारे पास कल तक थे ।आज पच्चीस हजार रुपये रह गए हैं।”
पच्चीस हजार रुपए की बात सुनकर नेताजी का मुँह कड़वा हो गया लेकिन फिर भी बोले “आप प्रार्थना पत्र दे जाइए। जैसे और प्रार्थना पत्रों पर विचार होता है, वैसे ही आपके प्रार्थना पत्र पर भी विचार हो जाएगा।”
हम समझ गए, यह टालने वाली बात है। हमने कहा “इंटरव्यू कब होगा ? ”
बोले” इंटरव्यू नहीं होता। जब आवश्यकता होगी, आपको बुला लिया जाएगा ।”
नेता जी से मिलकर बाहर आकर हम थोड़ी देर घूमते रहे । फिर हमें दो छुटभैये मिले। उन्होंने इशारों से हमें एक कोने में बुलाया और पूछा” टिकट की जुगाड़ में आए हो?”
हमने कहा ” हाँ…लेकिन जुगाड़ में नहीं आए हैं ।”
“कोई बात नहीं। हम आपको टिकट दिलवा देंगे। दो पेटी का खर्च है। टिकट हम आपके हाथ में रख देंगे”
हमने कहा “हमारे पास तो कुल पच्चीस हजार रुपए बचे हैं। छब्बीस हजार रुपये थे। इसमें से एक हजार रुपए आने – जाने में खर्च हो गए”
उन दोनों ने हमारे चेहरे की तरफ देखा और कहा” आप भले आदमी लगते हो। हम आपका काम पच्चीस हजार रुपए में ही कर देंगे।”
हमने कहा” पच्चीस हजार रुपए खर्च करके अगर टिकट मिलेगा तो फिर उसके बाद हम चुनाव कहाँ से लड़ेंगे? चुनाव लड़ने के लिए भी तो हमें कार में आना- जाना पड़ेगा ?”
दोनों छुटभैयों ने माथे पर हाथ रखा और बोले “आप कितने रुपए खर्च करना चाहते हैं?”
हमने कहा “हम आधा पैसा टिकट लेने पर खर्च कर सकते हैं ।”
वह.बोले “बहुत कम है, कुछ और बढ़ाइए ?”
इसी बीच नेताजी ने हमें बुला लिया । कहा”आज ही टिकट की मीटिंग होगी। उसमें प्रति व्यक्ति के हिसाब से बारह जनों की तीन सौ रुपये की स्पेशल थाली आएगी । तीन हजार छह सौ रुपये का पेमेंट कर दीजिए ।”
हमने कहा “अगर हमारा आवेदन पत्र नहीं आता ,तो क्या आप लोग भूखे रहते?”
नेताजी बोले “आपको तो अभी टिकट भी नहीं मिला और आप इतना रूखा व्यवहार कर रहे हैं ।”
हमने बात बिगड़ती हुई देखी तो छत्तीस सौ रुपये नेताजी के हाथ में रख दिए। कहा “हमारा टिकट पक्का जरूर कर देना ”
वह बोले “आपका ध्यान क्यों नहीं रखेंगे? जब आप स्पेशल थाली के लिए खर्च करने में पीछे नहीं हट रहे हैं, तो हम भी आपको टिकट दिलवाने का पूरा- पूरा ख्याल कारखेंगे।”
नेताजी को छत्तीस सौ रुपये सौंपकर हम बाहर आए तो वही दोनों छुटभैये खड़े हुए थे । हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे । हमें एकांत में ले गए और बोले “नेताजी के स्तर से कुछ नहीं होगा । सारा जुगाड़ हम लोगों के माध्यम से ही होना है ।”
हमने कहा “अब तो हमारे पास छब्बीस हजार रुपये की बजाय केवल इक्कीस हजार रुपये बचे हैं ।”
वह बोले “कोई बात नहीं । आधे अपने पास रखो तथा आधे अर्थात साढ़े दस हजार रुपये की धनराशि आप हमें दे दो । हम आप का टिकट पक्का करने की गारंटी लेते हैं।”
हम खुश हो गए और हमने अपनी जेब से साढ़े दस हजार रुपये निकालकर दोनों छुटभैयों के हाथ में पकड़ा दिए । दोनों छुटभैये बोले “ठीक है ,अब आप परसों आ जाना। आपको हम टिकट की खुशखबरी सुना देंगे ।”
बचे हुए साढ़े दस हजार रुपये लेकर हम अपने घर वापस आ गए। उसके बाद फिर पार्टी कार्यालय में जाकर नेताजी से अथवा दोनों छुटभैयों से मुलाकात करने की हिम्मत नहीं हुई । कारण यह था कि छुटभैयों से तो पता नहीं मुलाकात हो या न हो, लेकिन नेताजी मिलने पर फिर यही कहेंगे ” भाई साहब ! बारह लोगों की स्पेशल थाली के तीन हजार छह सौ रुपये जमा कर दीजिए ।आप के टिकट के लिए प्रयास जारी हैं।”
जब एक-दो दिन हमने चुनाव न लड़ पाने का शोक मना लिया, तब पत्नी ने समझाया “देखो ! तुम्हारे पास केवल छब्बीस हजार रुपये थे, जबकि चुनाव छब्बीस लाख रुपए से कम में नहीं लड़ा जाता । छब्बीस हजार रुपये जेब में लेकर भला कोई चुनाव लड़ने के लिए निकलता है ? यह तो वही कहावत हो गई कि घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने । साठ-सत्तर साल तक जोड़ना और जब छब्बीस लाख रुपये फूँकने के लिए इकट्ठे हो जाऍं तब चुनाव लड़ने की सोचना।”
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लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश )
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