बीड़ी की बास
कुछ स्वप्न
ममतत्व के,
कोमल भावनाएँ,
कोमल अटूट बंधन
और इन सबके बीच,
अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट।
अल्ट्रासाउंड रिपोर्ट की
ऊट-पटांग अबूझ भाषा
सिर्फ
सफ़ेद चोगे वाले ही समझते हैं।
ठीक ही है
समझ लेते हैं,
पर जब ये समझ
दिमाग से जुबान का सफ़र
तय कर
ले लेती है
शब्दों का आकार,
तो ठीक उसी वक़्त
वैसे ही, तत्काल, तत्क्षण
दरकने लगते हैं-
ममतत्व के कोमल अटूट बंधन
भरभरा उठते हैं स्वप्न;
ढह जाती है ममता
और कलुषित हो उठती हैं
कोमल भावनाएँ,
उसकी कोख़ से उसे
सुलगती हुई बीड़ी सी
गंध आने लगती है।
प्रकृति को मंज़ूर नहीं कि वो
अपने जैसी प्रकृति को जन्म दे।
प्रदूषित लगने लगती है
वो कोख़ एकाएक,
अल्ट्रासाउंड रिपोर्ट के बाद,
और
उसका दम घुटने लगता है।
वैसे भी
बीड़ी की गंध से उसे ऊब होती है।
कोख़ का प्रदूषण दूर करना
जरुरी हो जाता है
इसलिए,
कोख़ का प्रदूषण, कचरा, गरल
कोख़ से निकालकर
बहा दिया जाता है
गटर के रास्ते।
उसे संतोष होता है कि चलो
उसकी कोख़ से अब
बीड़ी की बास तो नहीं आएगी।
वैसे भी
ऊब होती है उसे,
बीड़ी की बास से।
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”