बीजः एक असीम संभावना…
उठ सके
अध्यात्म के शिखर तक,
छुपी हैं ऐसी
अनंत संभावनाएँ
मनुज में।
होती हैं
जैसे
हर बीज में
वृक्ष बनने की।
जरुरत है बस
सम्यक् तैयारी की,
समुचित खुराक,
उचित पोषण-
पल्लवन की।
बीज अल्प नहीं,
मूल है वह
समूचे वृक्ष का।
सृष्टा रूप है
बीज।
बीज को बीज की तरह ही
संजोए रखा,
तो क्या नया किया तुमने ?
अरे,
उसे हवा, पानी, खाद दो !
नई रौशनी दो !
फैलने को क्षितिज-सा विस्तार दो !
निर्बंध कर दो उसे,
उड़ने दो !
नयन-पंख
पसार
उन्मुक्त गगन में।
बीज को
वृक्ष बनाना है अगर,
मोह बीज का
छोड़ना होगा।
पूर्ण मानव की प्रतिष्ठा हित
मोह शिशु का
छोड़ना होगा।
बीज हैं हम सब
लिए अनंत संभावनाएँ,
निज में।
करनी हैं
यात्राएँ अनवरत।
चढ़ने हैं,
सोपान कितने,
वृक्ष बनने तक।
फलने फूलने तक।
होंगी साकार तभी
संभावनाएँ अपरिमित।
असीम
बनने के लिए
करना होगा, निज का
विलय शून्य में।
याद रहे !
निज को बड़ा नहीं बनाना
विसर्जित करना है खुद को,
हटानी होगी खरपतवार
क्रोध, ईर्ष्या, नफरत,
शक, संदेह की।
समष्टि हित,
हो व्यष्टि विसर्जित
है यही धर्म,
यही
सार्थकता जीवन की।
© डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)