बाबा साहब अंबेडकर का अधूरा न्याय
मनुष्य के जीवन में शक्ति तीन रूपों में कार्य करती हैं, शक्ति, सामर्थ्य और शौर्य। शक्ति व्यक्ति की शारीरिक ऊर्जा होती है जो उसे दैनिक काम करने में प्रयोग होती, सामर्थ्य व्यक्ति के मन की दृढ़ता होती है, किसी भी कार्य के प्रति समर्पण भाव होती, और शौर्य व्यक्ति का आत्मबल होता है, जो उसके अस्तित्व को दृढ़ रखता है किसी भी परिस्थिति में। अगर इन आधारों पर देखें तो बाबा साहब भीम राव अंबेडकर ने हिंदू धर्म की सामाजिक व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर स्थित दलित समाज को शक्ति एवं सामर्थ्य तो प्रदान की किंतु शौर्य प्रदान नहीं कर सके, उनका आत्मबल नहीं बढ़ा सके।
वास्तव में अंबेडकर दलित समाज में पैदा हुए थे और उन्होंने दलित समाज के ऊपर हो रहे अत्याचार को स्वयं के अनुभव से भोगा था। उन्होंने महसूस किया था कि जाति व्यवस्था के नाम हिंदू धर्म में किस प्रकार लाखों लोगों को पशु समान घोषित कर दिया जाता था। और इस जाति व्यवस्था का आधार भी ऐसा था जिसे कोई भी व्यक्ति परिवर्तित नहीं कर सकता था, अर्थात जन्म आधारित। जन्में व्यक्ति का ना अधिकार होता, ना योग्यता होती कि वह कहाँ जन्म ले, किस धर्म में ले या किस जाति में। यह तो स्वयं ईश्वर द्वारा तय किया जाता है या फिर प्रकृति की किसी रहस्यमयी व्यवस्था द्वारा। प्रकृति या नियति के इस अटल अपरिवर्तनीय नियम को जानते हुए भी हिंदू धर्म में जन्म आधारित जाति व्यवस्था को, जन्में व्यक्ति के भाग्य में जन्म लेते ही रोप दिया जाता और उनको चार जातियों में बाँट दिया जाता। जिसमें शूद्र जाति सबसे निचले पायदान पर होती, जिसका कार्य केवल अपने से ऊपर की जाति की सेवा करना उनका गंदा मैला उठाना और पशु समान जीवन जीना था। हिंदू धर्म में फैली इस कुरीति को दलित जाति में जन्में बाबा साहब भीम राव अंबेडकर ने समझा भी और भोगा भी। किंतु उन्होंने अपनी शक्ति एवं सामर्थ्य से अपने सामने आने वाली प्रत्येक चुनौती को कुचल दिया और दलित समाज के उस विश्वास को जाग्रत किया जिसे सवर्ण समाज ने वर्षों पहले सामाजिक व्यवस्था के नाम पर हमेशा के लिए जमीन के अंदर दबा दिया था, क्रूरता पूर्वक अमानवीय तरीके से। इसलिए बाबा साहब ने दृढ़ निश्चय किया कि वो दलित समाज की शक्ति को सामार्थ्य में परिवर्तित करेंगे और फिर उनका आत्मबल बढ़ाएंगे जिससे वो जन्म आधारित जाति व्यवस्था को अपने मानवीय एवं सामाजिक अधिकार प्राप्त करने में स्वयं को हीन ना समझें। इसलिए उन्होंने भारतीय संविधान बनाते समय दलित समाज के लिए आरक्षण की व्यवस्था की, जिससे उनको आगे बढ़ने में सुविधा हो, जिससे उनको आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहन मिल सके, जिससे वो कम संसाधन युक्त होकर अपने आप को उस मार्ग पर खड़ा कर सकें जिसपर सर्वणों ने अधिकार कर रखा था। उनके इस प्रयास एवं विचार का क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ, जो उन्होंने सोचा उसका परिणाम हिंदू समाज में दिखने लगा और जो बीज जमीन में क्रूरता से दबा दिया गया था उसने अंकुरित होकर वृक्ष बनना प्रारंभ किया और फिर स्वतंत्रता को महसूस किया, उस ताजी हवा पर और सूरज के प्रकाश पर भी अपना अधिकार प्राप्त किया जो उनको प्रकृति या नियति प्रदत्त था, और जिसे सर्वणों ने उनके जन्म से छीन रखा था।
आरक्षण व्यवस्था के द्वारा आज दलित समाज हिंदू धर्म में आये दिन नई ऊंचाइयां प्राप्त कर रहा है। वह आज उन पदों पर और उन स्थानों पर बैठा हैं जहाँ पर पहुँचने का स्वप्न ना तो उनके पूर्वजों ने कभी देखा होगा और ना ही कभी कल्पना की होगी। यह सब हुआ बाबा साहब भीम राव अंबेडकर की शक्ति एवं सामर्थ्य से उन्होंने सवर्ण समाज को मजबूर कर दिया कि वो दलित समाज को अधिकार दें। एक प्रकार से देखा जाये तो बाबा साहब ने दलित समाज के लिए वह सब किया जो स्वयं ईश्वर नहीं कर पाया हालांकि यह अलग बात है कि स्वयं बाबा साहब भी उसी ईश्वर की ही योजना के अंश थे। मगर इतना कुछ होते हुए भी बाबा साहब अंबेडकर दलितों को हिंदू सामाजिक व्यवस्था में वह सम्मान नहीं दिला सके जो नैसर्गिक था, अर्थात ऊंच नीच की व्यवस्था से उत्पन्न विभेद, और उस विभेद से उत्पन्न चारित्रिक असमानता को सर्वणों के स्तर तक नहीं ला सके। आरक्षण व्यवस्था ने भले ही दलितों को संसाधन उपलब्ध कराने में सहूलियत दी किंतु साथ ही उनकी शक्ति और सामर्थ्य के ऊपर प्रश्न चिन्ह भी खड़ा कर दिया। जो समाज में एक सामान्य विचार बन गया कि अगर आरक्षण नहीं होता तो दलित समाज में इतनी सामर्थ्य नहीं कि वह उन्नति कर सके, जबकि स्वयं बाबा साहब ने बगैर आरक्षण के सभी योग्यताएं हासिल की। इस प्रकार बाबा साहब ने दलित समाज को शक्ति दी, सामर्थ्य दिया किंतु आत्मबल नहीं दे सके, वह उनको वह आत्मविश्वास, आत्मगौरव, आत्माभिमान एवं आत्मसम्मान नहीं दे सके जो एक सवर्ण में अपने सवर्ण होने से प्राप्त होती है। अर्थात बाबा साहब दलित समाज को आत्मबल नहीं दे पाए, जबकि उनके पास वह सामर्थ्य थी, योग्यता थी और वैचारिक शक्ति भी कि जाति व्यवस्था के नाम पर हो रहे शोषण को हमेशा जाति व्यवस्था को समाप्त कर समाप्त किया जा सकता। किंतु बाबा साहब ने दलित समाज के शक्ति एवं सामर्थ्य को केवल शक्ति से ही जोड़कर देखा आत्मसम्मान से नहीं। जबकि संपत्ति, शक्ति दे सकती हैं, सामर्थ्य दे सकती है किंतु आत्मबल नहीं, आत्मबल के लिए तो व्यक्ति को अपने स्वयं के अस्तित्व को स्वीकारना होगा, स्वयं के जीवन पर गर्व करना होगा, जो आज भी दलित समाज में नहीं दिखता। हाँ कहीं-कहीं दिखता हैं किंतु जब उसका परीक्षण किया जाये तो वह भी प्याज के छिलकों की भांति एक-एक कर उतर जाता है और फिर वही रिक्तता शेष बचती है। शायद यही कारण था कि महारथी कर्ण ने अपनी सामर्थ्य दिखाने के लिए अपने कवच कुंडल भी दान में दे दिए थे जिससे वैदिक समाज जान पाता कि योग्यता या सामर्थ्य व्यक्ति के अंतर्मन में बसती है ना कि संसाधनों में, और व्यक्ति की योग्यता या अयोग्यता का कारण उसकी जाति या धर्म नहीं बल्कि सामर्थ्य होती है। इसी कारण अंग देश के राजा होते हुए भी अटूट संपत्ति होते हुए भी उन्हें समाज के तानों से आये दिन पीड़ा को सहना पड़ता था।
जब में दलित व्यक्तियों को देखता हूँ तो संपत्ति एवं सामाजिक स्थान पर तो वो बहुत समृद्ध हैं किन्तु उनमें आत्मबल एवं आत्मगौरव उतना नहीं होता। वो गर्व से नहीं कह पाते कि हम दलित हैं, हम इस जाति से हैं, और आज हम जिस मुकाम पर हैं उसमें एक हिस्सा आरक्षण का भी है। मैं महसूस करता हूँ समाज में उच्च स्थान पाने के बावजूद भी वो अपनी जाति, आरक्षण आदि को छिपाते फिरते हैं, लोगों से इस प्रकार बातें करते हैं कि कहीं उनके मन का रहस्य खुल ना जाए और उनके सम्मान को नेस्तनाबूद ना कर दे। वो अपने उपनाम आदि में अक्सर ऐसे उपनाम लगाते हैं जिससे समाज उनके रहस्य को समझ ना जाए उनकी जाति को जान ना जाए जबकि इसके विपरीत सवर्ण भले ही दलित व्यक्ति अधीनस्थ हो किंतु वह अपनी जाति के आत्मगौरव में ही रहता है और आए दिन जब भी अवसर मिलता है दलित व्यक्ति को जाति और हीनता का अनुभव कराता रहता हैं अपनी जाति की श्रेष्ठता। समाज में यह स्थिति इतनी ज्यादा व्याप्त हो गयी कि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने किसी दलित को खुले आम उसकी जाति सूचक शब्द से संबोधित करना अपराध घोषित कर दिया और उसके लिए दंड घोषित करना पड़ा। इसका उदाहरण इसी से समझा जा सकता है कि स्वयं बाबा साहब को अपने अंतिम समय में हिंदू धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म अपनाना पड़ा क्योंकि उनका मानना था कि, ‘ जन्म लेना मेरे वश में नहीं था किंतु किस जाति या धर्म में अपनी मृत्यु हो यह मेरे वश में है, क्योंकि मनु वादी व्यवस्था दलितों को कभी भी वह अधिकार या सम्मान नहीं दे सकती जो किसी भी व्यक्ति को नैसर्गिक रूप से प्राप्त हैं..’। जबकि वो तो स्वयं संविधान निर्माता थे, देश किस विचारधारा और नियमों पर चलेगा यह उन्होंने तय किया था, फिर भी वह वो अधिकार और सम्मान नहीं पा सके कि हिंदू धर्म में सम्मान के साथ मृत्यु पाते। इस प्रकार वो वर्षों पुरानी सामाजिक विचार एवं सोच को खत्म नहीं सके। किंतु बाबा साहब के पास वह अवसर था इस विचार को और इस व्यवस्था को हमेशा, हमेशा के लिए समाप्त कर देने का और एक नई व्यवस्था स्थापित करने का जिसमें शक्ति भी होती, सामर्थ्य भी होती और आत्मबल, आत्मसम्मान और आत्मगौरव भी होता।
आज भी अगर देखें तो देश के राष्ट्रपति को राम मंदिर पूजा में इसलिए भाग नहीं लेने दिया गया क्योंकि मनुवादी व्यवस्था इसकी स्वीकृति नहीं देती यही स्थिति नई संसद प्रवेश में देखी गयी क्योंकि दोनों ही स्तर पर राष्ट्रपति पद पर आसीन व्यक्ति दलित एवं जनजाति समाज से सम्बंध रखते थे। आज भी अगर हम किसी उच्च पद पर बैठे किसी दलित व्यक्ति को उसकी जाति से संबोधित करें तो उसके अंदर एक हीन भावना जागृत हो जाती है और वह कैसे भी अपनी सच्चाई को छिपाने की कोशिश करता है, जबकि सवर्ण लोग तो स्वयं ही एक दूसरे को अपने जाति सूचक शब्द से ही संबोधित करते हैं उनके अंदर अपनी जाति को लेकर हीन भावना नहीं बल्कि गर्व होता है। इस बात से बाबा साहब भी अनभिज्ञ नहीं थे इसलिए ही उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण किया और हिंदू सर्वणों के समानांतर खड़े हो गए। यह आरक्षण की व्यवस्था से कहीं ज्यादा अच्छा विचार था, हिंदू धर्म के दलितों को उनके नैसर्गिक अधिकार दिलाने का और उनको सवर्ण हिंदूओं के समानांतर खड़े करने का। क्योंकि अगर सभी दलित बौद्ध हो जाते तो हिंदू धर्म की जाति व्यवस्था ही लगभग समाप्त हो जाती, हिंदू धर्म में कोई शूद्र या दलित ही नहीं बचता। अगर सभी दलित बाबा साहब के साथ बौद्ध हो जाते तो हिंदू धर्म स्वतः ही अल्पसंख्यक हो जाता क्योंकि हिंदू धर्म मे सबसे ज्यादा जनसंख्या निम्न वर्णों की ही है। इस प्रकार भारत का प्रमुख धर्म बौद्ध हो जाता, और लोकतंत्र के आधार पर जिसकी जितनी अधिक जनसंख्या होती देश की राजनीति पर और सत्ता पर उसी का अधिकार होता। इस प्रकार अगर सभी दलित बौद्ध हो जाते तो उन्हें आरक्षण की जरूरत ही ना होती वो स्वतः ही देश की सत्ता के अधिकारी होते। वास्तव में जो आरक्षण व्यवस्था बाबा साहब ने लागू की उस कानून को उन्हीं सवर्णो ने स्वीकृति दी जो हमेशा से शूद्रों को पशु समान समझते थे, जो स्वयं में एक ताज्जुब की बात थी कि उन्होंने इस कानून को स्वीकृति क्यों दी..? जिसका मुझे मुख्य कारण यही लगता है कि उस समय के सवर्ण नेता बाबा साहब की योग्यता और दलितों में उनकी लोकप्रियता से घबराए हुए थे। वो समझते थे कि अगर बाबा साहब ने सभी दलितों को बौद्ध बनने का आवाहन दे दिया तो हिंदू धर्म अल्पसंख्यक हो जाएगा और बौद्ध धर्म भारत में बहु संख्यक। इसी कारण उन्होंने दलित समाज के सामने आरक्षण का टुकड़ा फेंक दिया होगा।
वास्तव में उस समय अगर सभी दलित बौद्ध हो जाते तो हिंदू धर्म के सवर्ण या स्वयं हिंदू धर्म आज उसी स्थिति में होता जिसमें अन्य अल्पसंख्यक हैं। इससे हिंदू धर्म का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता, जाति व्यवस्था का समूल नाश हो जाता मनु वादी सोच का अंत हो जाता, और जिस जाति पर सवर्ण गर्व करते हैं उस गर्व का गर्भपात हो जाता। अगर ऐसा होता तो सत्ता उन्हीं दलित परिवर्तित बौद्धों के हाथों में होती उन्हीं का प्रधानमंत्री होता, उन्हीं राष्ट्रपति, उन्हीं का सांसद एवं विधायक होता और फिर जो चाहते जनसंख्या प्रतिनिधित्व आधार पर वो करते वह कानून बनाते। इसके साथ ही उनके अंदर दलित होने की जो हीन भावना होती है, वह भी धर्म परिवर्तन के साथ ही समाप्त हो जाती और एक सामान्य बौद्ध की तरह प्रत्येक दलित परिवर्तित बौद्ध उसी सम्मान का अधिकारी होता जो हिंदू धर्म में ब्राह्मण या क्षत्रिय और वैश्य होता है। इस प्रकार जो व्यवस्था इंसान को पशु बनाने के लिए प्रारंभ की गयी थी बाबा साहब उसे समाप्त कर देते, जो हिंदू कानूनविदों के ऊपर ब्रह्म अस्त्र जैसा प्रहार होता।
वास्तव में बाबा साहब अंबेडकर ने जाति व्यवस्था के आधार उसकी नींव पर प्रहार नहीं किया बल्कि जाति के स्तरों को बराबर करने का प्रयास किया। उन्होंने निम्न वर्ण को कानूनी अधिकार तो दिलाए किंतु उनको नैसर्गिक सम्मान नहीं दिला पाए, उस व्यवस्था को समाप्त नहीं कर पाए जो उनके शोषण का स्रोत थी। जबकि बाबा साहब को जाति व्यवस्था का समूल नाश कर देना था, सभी दलितों और निम्न वर्णों को बौद्ध धर्म में परिवर्तित करके। बाबा साहब ने ध्यान नहीं दिया कि संपत्ति केवल संसाधन उपलब्ध करा सकती है सम्मान नहीं। जो आए दिन सामने आने वाली घटनाओं के रूप में देखा जा सकता है।
प्रशांत सोलंकी,
नई दिल्ली-07