बहते पानी पे एक दरिया ने – संदीप ठाकुर
बहते पानी पे एक दरिया ने
अपनी लहरों से लिक्खे अफ़्साने
बादलों में समेट के बारिश
अश्क धरती के लाई लौटाने
काग़ज़ी फूल की महक का सच
ये देहाती परिंदा क्या जाने
झूमी दीवारें किस की आहट पे
तुलसी आँगन लगी है महकाने
शाम की राह तकते हैं कब से
धूप में पेड़ छतरियाँ ताने
हम समझते हैं एक-दूजे को
तुम भी दीवाने हम भी दीवाने
दिल की गहराइयाँ अँधेरी हैं
इस महल का नसीब तह-ख़ाने
रात भर सिसका बाज़ुओं में मिरे
चाँद आया था मुझ को समझाने
संदीप ठाकुर