बरसात का प्रतिशोध
महज़ बरसात की बूँदों का गिरना ज़रूरी न था
उससे पहले लहलहाते पेड़ों का होना भी ज़रूरी था ,
मगर यह क्या ?
बरसात तो आयी
मगर स्वागत को विटप न मिले ,
बूँदें बिना हरियाली के आलिंगन के
छन से धरती पे गिर गयीं
गिर के उनका अस्तित्व भी मिट चला
धरती पर भी उन्हें रोकने वाला कोई न था ,
बरसात ने सोचा –
की विज्ञान तो हमारा खूब उन्नत है
तब भी क्या हम वृक्षों की महत्ता न समझ पाए
क्या हम वर्षा का जल संचय करना सीख न पाए ,
अब कुछ तो वर्षा – रानी नाराज़ हुई
बोली हे मानव ! तुमने मुझे नहीं समझा
मेरे महत्व को नहीं समझा
मेरे मित्र वृक्षों को काट डाला
तो अब अगले बरस मैं न आउंगी
अब न बरसूँगी मैं –
तुम्हारे सावन – भादों यूँ ही सूने हो जायेंगे
तुम यूँ ही सूरज की तपन से तप जाओगे
तुम यूँ ही आसमान को ताकते रहना
पर मैं न आउंगी ……
लूँगी प्रतिशोध मैं भी अपमान का …
मेघों का दल ज़रूर आएगा …
चंचल – चपल चपला भी आएगी
पर बिना तरु – समीर मैं न आउंगी
तब तो तुम समझोगे न की –
महज़ बरसात की बूँदों का गिरना ज़रूरी न था
उससे पहले लहलहाते पेड़ों का होना भी ज़रूरी था |
द्वारा – नेहा ‘आज़ाद’