बढ़ती उम्र के साथ मानसिक विकास (बदलाव) समस्या और समाधान
प्रकृति से हम सब भलीभाँति वाकिफ़ है। और हम सब यह भी जानते है कि बदलाव प्रकृति का नियम है। बदलाव कि सीढ़ी पर चलकर ही आज हम सब विकास की इस अवस्था तक यहाँ पहुंचे है। लेकिन इस निरंतर चलने वाली प्रक्रिया मे कुछ बदलाव ऐसे भी होते है, जो हमारे शरीर मे होते तो है लेकिन हमे कभी भी प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं पड़ते, और इस तरह इन सबको समाज के द्वारा नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। यहाँ पर समाज शब्द से पर्याय उन सभी संस्थाओ (परिवार, विधयालय इत्यादि) से है जो कि समाज के अंतर्गत आती है।
अगर हम एक मनुष्य के जन्म से लेकर मुत्यु के संदर्भ मे बदलाव शब्द कि बात करे तो हम “ऐरिक्शन” के मनोसामाजिक विकास सिद्धान्त कि वो आठों अवस्थाओं को नाकार नहीं सकते, बदलाव (विकास) कि जिन प्रक्रिया से होकर हम सब गुजरे है। विकास की इन सभी आठ अवस्थाओं मे ऐरिक्शन ने यह बताने का प्रयास किया कि एक शिशु कि बढ़ती उम्र के साथ उसमे शारीरिक, तथा मानसिक अवस्था मे किस तरह के बदलाव होते है। इस दौरान उसके शारीरिक बदलाव (विकास) कि अवस्थाओं को आसानी से पढ़ लिया जाता है, लेकिन इसके उलट उम्र के हरेक पड़ाव मे एक बालक द्वारा उसकी मानसिक अवस्थाओं को पढ़ पाना आज भी एक पहेली है, या फिर कह सकते है कि समस्याओं को जान कर भी हम सब अंजान बने बैठे है। क्योंकि, आज तक हमें कभी कोई समस्या लगी ही नहीं। या फिर कहे कि हम समस्याओं पर खुलकर बाते करना ही नहीं चाहते। जिसकी वजह से समस्या जस की तस बनी हुई है।
शिशु की बढ़ती उम्र के साथ आने वाली समस्याओं का समाधान करना आवश्यक होता है। “ऐरिक्सन” के अनुसार समस्या कोई संकट नहीं होती है, बल्कि संवेदनशीलता और सामर्थ्य को बढ़ाने वाला महत्वपूर्ण बिन्दु होती है। समस्या का व्यक्ति जितनी सफलता के साथ समाधान करता है उसका उतना ही अधिक विकास होता है, या फिर कहे कि जीवन मे सफल होने कि संभावनाएं और अधिक बढ़ जाती है।
इसी तरह “ऐरिक्शन” के मनोसामाजिक विकास सिद्धान्त की पाँचवी अवस्था “पहचान बनाम पहचान भ्रान्ति” जिसे समान्य तौर पर “तूफान की अवस्था” भी कहा जाता है। इस अवस्था मे किशोर अपने जीवनकाल के उस पड़ाव से गुज़रता है जहां उसे ऐसे प्रश्नों या स्थिति का सामना करना पड़ता है। जिससे की वह अभी तक अनभिज्ञ था। जैसे कि वो कौन है? किससे संबंधित है? और उनका जीवन कहां जा रहा है? किशोर अवस्था के इस दौर मे बच्चों को अपने से बड़े (अभिभावक, शिक्षक आदि) के सहयोग और मार्गदर्शन की बहुत अधिक अवश्यकता होती है। अगर सही समय पर किशोर की मानसिक अवस्था मे होने वाले परिवर्तन को समाज के द्वारा पढ़ या समझ लिया जाता है तो किशोरों के अंदर चल रही उधेड़बुन/या उनकी समस्याओं का निदान करना संभव हो जाता है।
किशोरावस्था की सीढ़ियों के अंतिम चरण के पश्चात एक किशोर “ऐरिक्शन” के मनोसामाजिक विकास सिद्धान्त की उस छटवी युवा अवस्था “आत्मीयता बनाम अलगाव” के प्रारम्भिक वर्षों मे प्रवेश करता है, जहां वह समाज मे स्वयं को खोजता है, एक व्यक्ति को स्वयं को किसी और (व्यक्ति में) खोजना पड़ता है। यदि ऐसा नहीं होता है तो अलगाव की भावना उत्पन्न हो जाती है। अगर समाज के द्वारा किसी व्यक्ति को नकार दिया जाता है तो उसके भीतर हीन भावना उत्पन्न होने लगती है। और उसके भीतर नकारात्मक भाव उत्पन्न होने लगते है।
जन्म से लेकर मुत्यु तक के विभिन्न चरणों में आने वाली समस्याओं का उचित समाधान हमेशा सकारात्मक रूप से किया जाना चाहिए। और यह तभी संभव है जब बदलाव को स्कारात्मक रूप से स्वीकार करें तथा हम सब मिलकर आशावादी दृष्टिकोण अपनाए। क्योंकि हम सब जीवन के उस पड़ाव से गुज़र चुके है। जिस पड़ाव से वर्तमान पीढ़ी गुज़र रही है। जीवन की हर स्थिति में सभी लोगों के साथ एक जैसा व्यवहार संभव नहीं है। लेकिन उससे पूर्व यह भी ध्यान रखना होगा कि बदलती हुई सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार समायोजन करके ही उत्तम एवं स्वस्थ व्यक्तित्व का निर्माण किया जा सकता है