निर्बल होती रिश्तो की डोर
त्यौहार हो जाए फीके, वक्ती हालात है
व्यवहार को गए फीके, चिंता की तो बात है
दर्द पराया ,अब पराया ही रह गया
खुशिया भी है जलन की मारी, सच क्यू यह बात है
काम का होना, संपर्क की शर्त है जरूर
बिन मतलब के, अब कौन किस के साथ है
प्यार भी अब है, व्यापार की मानिंद
दिल से ज्यादा, बडी जेब की आस है
झरोखे, दरवाजे, अब बंद ही रहते है अक्सर
घर के अंदर, चुप्पी के कोलाहल का वास है
गर्व और दंभ की अब मिट रही है दूरी
मै भी सही, से ज्यादा, मै ही सही का राज है
जाने अनजाने निर्बल हो रही रिश्तो की डोर
क्यो,कैसे, क्या है हितकारी, प्रश्न है, पर बे आस है
संदीप पांडे “शिष्य”