बचपन को भी कराएं साहित्य से रूबरू
महादेवी वर्मा ने कहीं लिखा है, ‘‘अतीत चाहे कितना भी दु:खद या सुखद क्यों न रहा हो, उसकी स्मृतियां हमेशा मधुर लगती हैं.’’
फिर अगर ये स्मृतियां बचपन से जुड़ी हों तो फिर कहना ही क्या! कहने की जरूरत नहीं कि हम सभी के जीवन के सबसे प्यारे, खूबसूरत और सुनहरे पल बचपन से ही जुड़े होते हैं जिनकी स्मृतियां पूरी जिंदगी हमें बरबस ही जब-तब मुस्कुराने के लिए प्रेरित करती रहती हैं- क्योंकि बचपन चाहे सामान्य जन का हो या महान शख्सियतों का, उनमें बहुत कुछ एक समान ही होता है. एक जैसी जिद, जरा सी बात पर रूठना, फिर अगले ही पल हंसना, छोटी-छोटी बचकानी गलतियां करना और ऐसी बहुत सी हरकतें, जिनकी वजह से बचपन ‘बचपन’ बनता है और शायद यही इसकी खूबसूरती है.
‘बचपन’ में एक बच्चा अपने परिवेश और परिवार से जो सीखता है, वह तो सीखता है ही लेकिन अगर उसके ‘बाल-मन’ के तार को साहित्य रूपी पतंग से जोड़ दें- तो फिर क्या कहने? अगर इन परिस्थितियों में किसी का बचपन बीतेगा तो मैं दावे के साथ कहूंगा यह ‘बचपन’ जब आगे चलकर एक ‘नागरिक’ के रूप में परिवर्तित होगा तो यह नागरिक सच्चे अर्थों में ऐसा नागरिक होगा जो अपने जीवन में अपने स्वयं के विकास के साथ-साथ सदैव देश और समाज के भी विकास-कल्याण के बारे में सोचेगा. आज अभिभावक और समाज बच्चों-किशोरों-युवाओं से अपेक्षाएं बहुत करते हैं, लेकिन वे स्वयं इस बात पर गहराई से विचार करें कि क्या वे ‘बचपन’ का संपूर्ण-स्वस्थ पोषण और संवर्धन करते हैं. तथाकथित ‘उज्जवल भविष्य’ की चिंता में ‘बचपन’ कहीं खोता जा रहा है. हम बच्चों को पूर्ण स्वतंत्रता नहीं देते, उनके अधिकारों और इच्छाओं की परवाह नहीं करते. बालमन चंचल और चपल होता है. उन्हें हरदम बदलाव चाहिए, नयापन चाहिए और हर वक्त उनकी अपनी जिज्ञासाओं का शमन चाहिए, हम अभिभावक ईमानदारी से अपने हृदय-कमल पर हाथ रखकर क्या कह सकते हैं-हम बच्चों की अपेक्षाओं पर खरा उतरते हैं? उत्तर सीधा और साफ होगा-हर्गिज नहीं. फिर हम किस आधार और अधिकार से किशोर-युवकों से सद्व्यवहार और उनसे ‘श्रवण कुमार’ होने की उम्मीद करते हैं. बालपन ही वह सही वक्त होता है जब उसमें इंसानियत का बेहतर पाठ पढ़ाया जा सकता है. जीवन की व्यावहारिकता सिखाई जा सकती है. जीवन-समर को जीतने के नुस्खे सिखाए जा सकते हैं. लेकिन हम सभी बच्चों के साथ घोर अन्याय करते हैं कि हम सीधे उनके मन में महत्वाकांक्षा के विषैले भाव बोते हैं और गलतफहमी पालकर चलते हैं कि हम एक अच्छे अभिभावक हैं. बच्चों का वर्तमान महत्व नहीं रखता, महत्व रखता है उसका भावी-जीवन. यह घोर स्वार्थभरी प्रवृत्ति है जिसके वशीभूत होकर हम बच्चों को समय से पहले प्रौढ़ बना देते हैं. अगर सचमुच हम सच्चे ईमानदार अभिभावक हैं तो बच्चों को साहित्य से रू-ब-रू कराएं अर्थात उन्हें बालसाहित्य से जोड़ें व स्वयं भी जुड़ें.
बाल साहित्य का आरंभ सदियों से वाचक परंपरा के रूप में रहा है. मां की लोरियों और दादी-नानी की कहानियों से बाल साहित्य की शुरुआत होती है. याद करिए जरा वह सीन-आज भी अपने अतीत में खोए बिना नही रहेंगे जनाब-
‘‘संध्या ढल रही है. आंगन या ओसारे स्थित चूल्हे से धुआं उठ रहा है. युवा महिलाएं भोजन बनाने की प्रक्रिया में जुटी हैं. बड़ी उम्र की महिलाएं अर्थात दादी-परदादी ओसारे में रखी खाट या तखत पर बैठी हैं. भोजन बनाने में जुटी महिलाएं अपने छोटे शिशु को सास या दादी सास की गोद में रख जाती हैं. शिशु को गोद में लेते ही दादी उसे थपकी देने लगती हैं. उनके कंठ से कुछ पंक्तियां रिसने लगती हैं. शिशु थपकियों से अधिक सस्वर गाई जा रही उन पंक्तियों से प्रभावित होता है. दादी यदि गाना भूल जाए तो शिशु उसके मुंह में उंगली डालता है. ये गीत जिसे ‘लोरी’ कहा जाता है, थे ही उतने सरस. आज कितनी माताएं लोरियां जानती हैं? आज जब मैं स्वयं लिखने बैठा तो मुझे स्वयं भी 5-6 लोरियों से अधिक याद नहीं आ सकीं. आज इन तमाम भाषा-बोलियों की लोरी को लिपिबद्ध करने की जरूरत है और जिसे शादी के दरम्यान बंधुओं को उपहार में दी जा सके.
पहले शिशुओं को थपकी देकर सुलाने का स्त्रियों को अभ्यास था. बाबा, भिखारी या भूत का भय दिखाने की जरूरत नहीं होती थी. पुरुष लोरी नहीं गाते. मां के गर्भ में शिशु बंधन में पड़ा होता है इसलिए बाहर निकलने पर भी उसे मां के शरीर का स्पर्श या बंधन चाहिए. बच्चे के गोद में आते ही कभी नहीं गाने वाली माताएं भी गुनगुनाना आरंभ कर देती थीं.
लोरी होती तो बच्चों को सुुलाने के लिए पर इन गीतों के गहरे भाव होते हैं. उनमें उस समाज का इतिहास और भूगोल तो रहता ही है, सामाजिक चेतना के स्वर और रिश्तों की तासीर भी वर्णित रहती हैं. मां की मंशा, उनकी तमन्ना, बच्चे से उनकी अपेक्षा भी लोरियों में प्रकट होती है.
एक विशेष स्वर में थपकी के साथ गाई जानेवाली लोरी शिशु को सुला देती है. संभवत: उसकी नींद में मां के स्वर-ताल गूंजते होंगे. संभवत: शैशवास्था में पाए वह स्नेहिल स्पर्श और लोरी के स्वर-ताल व्यक्ति आजीवन भुुला नहीं पाता. उसे मां का स्वर हमेशा शांति और सुख प्राप्त कराता है. कठिनाइयों से लड़ते समय संबल प्रदान करता है. दरअसल जैसे मां के दूध से बच्चे का शरीर पुष्ट होता है, वैसे ही दूध के साथ गाई जानेवाली लोरी से उसका मन-मस्तिष्क पुष्ट होता है. मैं तो कहूंगा जीवन का पहला मधुर गान है और साहित्य की दिशा में पहला कदम है लोरी-
‘चंदा मामा…..
आरे आव, पारे आव
नदिया किनारे आव
सोना के कटोरिया में…
दूध-भात लेके आव
बबुआ के मुंह में घुटुक
बबुआ के मुंह में घुटुक’
मांओं द्वारा गाई जानेवाली लोरियों में उनके मायके की प्रधानता होती थी. ब्याह कर ससुराल आने पर पूरी जिंदगी भर ससुराल में रहती हैं पर मायके को हर पल प्रमुख बनाती रहती हैं. बबुआ के मामा-मामी तो प्रमुख होते ही हैं, छत पर बैठा कौआ मामा भी बच्चे के लिए दूध भात ले आता है. देखिए चांद भी मामा है, चाचा नहीं. मामा इसलिए कि वह मां का भाई है-
चंदा मामा दूर के
पुए पकाएं गुड़ के
आप खाएं थाली में
मुन्ने को दें प्याली में
प्याली गई टूट
मुन्ना गया रूठ
ुलाएंगे प्यालियां
बजा-बजा के तालियां
मुन्ने को मनाएंगे
हम दूध-मलाई खाएंगे’
मैंने ट्रेन में सफर के दौरान एक बुजुर्ग पंजाबी महिला को अपनी पोतिन को यह ुलोरी बड़े मधुर लय और तन्मयता से गाकर सुुाते देखा था. वह मुझे आज भी याद है- मैंने उस वक्त झट उसे अपनी डायरी में लिख मारा था. हालांकि उस वक्ता जल्दी में कुछ शब्द गलत लिख लिए थे जिन्हें बाद में मैंने ठीक किया.
‘जंगल सुत्ते, परवत सुत्ते
सुत्ते सब दरिया
अजे जागदा साडा काका
नीदें छेती आ.
ऊं…ऊं…ऊं..ऊं…
इसका हिंदी में अर्थ है-जंगल पर्वत, दरिया सब सो चुके हैं. लेकिन मेरा बच्चा अभी तक जाग रहा है. इसलिए ए नींद! तुम भी जल्दी आ जाओ.
सच बताऊं, उस वक्त यह लोरी मुझे बहुत ही अच्छी लगी थी क्योंकि वह गा भी बड़ी ही तन्मयता से रही थी. कई बार मैं भी किसी खास मन:स्थिति में इसे अब भी गुनगुनाने लगता हूं.
आज शहरों में ज्यादातर माताएं नौकरीपेशा हैं और ये संयुक्त परिवारों से टूटती जा रही हैं. उनके पास न तो लोरियों का भंडार रहा, न ही कहानियों की पूंजी. जबकि ये हमारी अनमोल पूंजी है. इन्हें सहेजकर रखना जरूरी है.
बच्चों को अनुशासन, कर्तव्यनिष्ठा और इंसानियत की शिक्षा डांट-डपटकर या प्रवचन वाले तौर-तरीके से कोरी नैतिक शिक्षा देकर नहीं दी जा सकती है. इसके लिए सबसे अचूक और शानदार तरीका साहित्य से रू-ब-रू कराना है. मैं खुद इसका जीता-जागता उदाहरण हूं. बचपन की कक्षा-4 में हमें मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ पढ़ाई जाती थी. यह कहानी सहज ही मेरे दिल में उतर गई. ईदगाह कहानी का एक पात्र हामिद अन्य बच्चों की तरह खाने-पीने और शौक पूरा करने के बजाय मेले में अपनी दादी की चिंता करता है और लौटते समय दादी के लिए चिमटा लेकर आता है.
कहानी पढ़कर भावुकता से आंखें डबडबा आती हैं. और स्वाभाविक रूप से हामिद हमारे दिल-दिमाग में छा जाती है.
पौराणिक, तिलस्मी कहानियां बच्चों का मनोरंजन तो करती हैं लेकिन ये उनके लिए प्रेरक नहीं बनतीं क्योंकि ये उनके लिए दूर के पात्र होते हैं. बच्चों के मानसिक और भावनात्मक विकास के लिए ऐसे साहित्य की जरूरत है जो बाल-मनोविज्ञान के आधार पर गढ़ा गया हो जो उन्हें यथार्थ से, वास्तविकता से अवगत कराएं- सीधे परिवार, समाज, देश और जन-जन से जोड़ें.
मेरे क्या, जो भी हिंदी साहित्य से पूरे प्राण-पण से जुड़ा है, उन सबके हृदय सम्राट मुंशी प्रेमचंद हैं. प्रेमचंद (1880-1936) हिंदी के महान कथाकर और उपन्यास सम्राट हैं लेकिन साथ ही वे हिंदी बालसाहित्य की नींव रखनेवाले दिग्गज हैं. हिंदी बाल उपन्यास विधा का यह सौभाग्य है कि उसकी नींव रखने का श्रेय उपन्यास सम्राट प्रेमचंद को जाता है. प्रेमचंद की रचना ‘कुत्ते की कहानी’ हिंदी का पहला बाल उपन्यास है जिसे उन्होंने अपनी असमय मृत्यु के पूर्व 1936 में लिखा था. दस खंडों में बंटी प्रेमचंद की यह लंबी और सुव्यवस्थित कथाकृति निश्चित रूप से बाल उपन्यास ही है, कहानी नहीं, इसकी भूमिका में प्रेमचंद ने बालपाठकों को संबोधित करते हए लिखा है ‘‘उम्मीद है तुम्हें यह ‘कुत्ते की कहानी’ अच्छी लगेगी क्योंकि उस कुत्ते के भीतर भी तुम्हारे जैसा ही सरल-निश्छल बच्चा बैठा हुआ है.’’
इस उपन्यास की संक्षिप्त कहानी इस तरह है-कुत्ते का एकदम देसी नाम कल्लू है. उसका एक भाई और मां है, पर उनसे कल्लू का स्वभाव अलग है. जब उसका भाई ही उससे जबरन रोटी छीन रहा होता है तो कल्लू दु:खी होकर सोचता है, ‘हम कुत्तों में यही तो बुराई है. एक कुत्ता दूसरे का सुख नहीं देख सकता.’ कितना जोरदार व्यंग्य है. उपन्यास के आखिर में बच्चों के मन:पटल में हीरो बन चुके कल्लू के कई बड़े और हैरतअंगेज कारनामों के बाद अब उसके पास सारे सुख हैं. अखबारों में उसकी वीरता की कहानी छप चुकी है. लोग लाखों रुपए देकर उसे खरीदना चाहते हैं. नौकर-चाकर हमेशा सेवा करने और टहलाने के लिए मौजूद हैं. साहबों की तरह टेबल पर खाना मिलता है पर कल्लू सुखी नहीं है. उसका मन अब भी पहले की तरह गलियों में घूमने और धमा-चौकड़ी मचाने को करता है. महसूस करता है कि उसके पास सारे सुख हैं लेकिन गले में गुलामी का पट्टा बंधा हुआ है और गुलामी से बढ़कर कोई दु:ख नहीं है. वह उपन्यास के एक स्थान पर कहता है, ‘‘तब से कई नुमाइशों में जा चुका हूं. कई राजा-महाराजाओं का मेहमान रह चुका हूं मगर यह मान-सम्मान अखरने लगा है. यह बड़प्पन मेरे लिए कैद से कम नहीं है. उस आजादी के लिए जी तड़पता रहता है जब मैं चारों तरफ मस्त घूमा करता था.’’ उपन्यास के अंत में यह संकेत कर प्रेमचंदजी आजादी की लड़ाई की पूरी मर्म-भावना और तड़प को प्रकट कर जाते हैं.
सिर्फ ‘कुत्ते की कहानी’ ही नहीं, यही बात बचपन या किशोरावस्था में पढ़ी प्रेमचंद की कहानियों को लेकर कही जा सकती है, जो जीवनभर हमारा पीछा करती है और रूप बदल-बदल कर हमें मोहती और लुभाती हैं. इस लिहाज से प्रेमचंद की ‘दो बैलों की कथा’, ‘बड़े भाई साहब’, ‘गुल्ली डंडा’, ‘ईदगाह’ समेत ढेरों कहानियों का स्मरण आता है जिन्होंने हमारे भीतर संवेदना को रचा है और हमें तमाम तरह के ‘सूखे’ से बचाकर ‘आर्द्र’ बनाए रखा है. प्रेमचंद की इन कहानियों की खासियत यह है कि मूलत: ये कहानियां बच्चों के लिए नहीं लिखी गई थीं, पर इनमें जीवन की सच्चाइयां इतने सहज और जीवंत रूप में आती हैं कि बच्चे हों या बड़े, सभी ने उन्हें पढ़ा और सराहा. प्रेमचंद की ये कहानियां हमारे दिल में उतरती हैं और हमें अपने साथ बहा ले जाती हैं. एक बार आप सभी पाठक उदाहरण के तौर पर ‘ईदगाह’ कहानी अवश्य पढ़िए. उसमें आप देखेंगे कि ‘ईदगाह’ का हामिद जब और बच्चों की तरह अपने खाने-पीने और शौक पूरा करने की बजाय अपनी दादी की चिंता करता है और लौटते समय अपनी दादी के लिए चिमटा लेकर आता है, तो उस पर दादी ही नहीं, कहानी पढ़नेवाला हर पाठक रीझता है. खास बात यह है कि इस कहानी में बच्चों के लिए सीधा कोई उपदेश नहीं है पर यह कहानी उन्हें भीतर से बदल देती है और वे अपने-पराए सभी के दु:ख-दर्द को अधिक संवेदनशील होकर देखते और समझते हैं.
इस कहानी में हामिद का एक असाधारण गुण है जो बाल पाठकों के हृदय पर गहरा असर छोड़ता है. वह यह है कि दूसरे बच्चे जब सुंदर रंग-बिरंगे खिलौने खरीदते हैं तो वह महंगे खिलौने की बजाय चिमटा खरीदता है पर इस बात को ुलेकर उसके मन में कोई हीनता नहीं है. हामिद के साथी जब अपने खिलौने की तारीफ कर रहे होते हैं तो वह अपने चिमटे की खासियत इतने असरदार ढंग से बताता है कि दूसरे बच्चे भी उसका चिमटा थोड़ी देर के लिए हाथ में लेने के लिए ुुललक उठते हैं. अब आप ही बताइए-ऐसा हामिद भला जिंदगी में किसी से कैसे मात खा सकता है?
तो यह होता है बालमन पर साहित्य का असर. अब शायद आप यह कहें कि आज के परिवेश में कहानियां-साहित्य पढ़ेगा कौन ? तो यह आपकी बेढब सोच है. बाल साहित्य की लोकप्रियता का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि हैरी पॉटर की 32 करोड़ से अधिक प्रतियां विश्व में अब तक बिक चुकी हैं किंतु हिंदी साहित्य में ऐसी स्थिति अभी बनी नहीं है. विज्ञान की प्रगति ने, सूचना और संचार क्रांति ने हिंदी साहित्य में यद्यपि सार्थक परिवर्तन किया है, हिंदी साहित्य समृद्ध भी हुआ है पर बाल साहित्य का अब भी अभाव है. इसका एक कारण है कि जिस तरह श्रेष्ठ बाल पुस्तकें लिखने वालों की संख्या कम है, उसी प्रकार बालपाठकों की संख्या भी कम है.
यह विषय मेरे लिए इतना गंभीर, महत्वपूर्ण और अकुलाहट से भरा है कि लगता है मैं अपनी सारी खदबदाती भावनाएं लिख बैठूं- आपसे शेयर करूं लेकिन संपादक महोदय के सामने स्थानाभाव की भी एक बहुत बड़ी समस्या होती है- अत: इस मर्यादा को ध्यान में रखते हुए मैं इस लेख के माध्यम से पाठकों से सीधे साफ शब्दों में यह कहना चाहूंगा कि बेशक आप अपने बच्चों के करियर का ध्यान रखिए. उन्हें महंगे से महंगे इंग्लिश मीडियम के स्कूल में भेजकर उन्हें इंजीनियर, डॉक्टर, वकील, चार्टर्ड एकाउंटेंट, उद्योगपति, आईएएस बनाने का सपना पूरा करने की भरसक कोशिश करिए- लेकिन साथ-साथ उन्हें एक अच्छा इंसान बनाने की भी कोशिश करिए, उन्हें हिंदी साहित्य के माध्यम से अपनी मूल माटी की गंध से भी जोड़े रखिए. इसके लिए आप भी हिंदी साहित्य से जुड़िए और देश के बचपन को भी साहित्य से रू-ब-रू कराइए.
(लोकमत समाचार, नागपुर के दीपावली विशेषांक ‘उत्सव-2016’ में प्रकाशित)