फिर भी गुनगुनाता हूं
समझ कुछ नहीं पाता हूं
फिर भी गाता गुनगाता हूं
मैं सहज, सरल, बेवश,
लाचार हूं पर मिथ्या को स्वीकार हूं
सत्य की एक हार हूं
समझ कुछ नहीं पाता हूं
फिर भी गाता गुनागता हूं
मैं नासमझ, नादान हूं
जो जमाने के तरफ खुद
को ढो नहीं पाता हूं
जमाना चाहता है मैं
उसे स्वीकार करू
मिथ्या, निंदा, मक्कारी, बेईमानी
जैसे पापों से प्यार करू
ऐसा मैं हो नहीं पाता खुद को
उस ओर ढो नहीं पाता
माना सहजता में ढलना
थोड़ा मुश्किल होगा
सत्य की राहों पर भी चलना
थोड़ा मुश्किल होगा पर
अंतत: स्वर्ग में पालना होगा यहां …