फिर कैसे गीत सुनाऊंँ मैं?
धस रही धरा तल से प्रतिपल,फिर कैसे गीत सुनाऊंँ मैं?
अंतश है धुंध से आच्छादित,कैसे अब दीप जलाऊंँ मैं!
नव कुंज सा खिलता प्रश्न दिखा,
उत्तर क्यों है कोलाहल में?
किस जीत को मैं अभी जीत कहूंँ
द्वंदों के विकट हलाहल में।
विस्मय है मन के द्वार खड़ा,कैसे पुलकित हो पाऊंँ मैं।
धस रही धरा तल से प्रतिपल,फिर कैसे गीत सुनाऊंँ मैं?
है कवि हृदय इक अबला सा…
कभी रोता है कभी बहता है
कभी खण्डित होता शब्दों से
कभी व्यर्थ व्यथा वो सहता है।
मन में दुःख का आरोहण है,तन से कैसे इठलाऊंँ मैं।
धस रही धरा तल से प्रतिपल,फिर कैसे गीत सुनाऊंँ मैं?
मन हुआ दुःखी दुःख अविचल है
है अडिग पीर अंतर्मन में
तुलसी ,खोने से क्या होगा
बस सुनापन इस आंँगन में
अब खोने को क्या ही कुछ है,क्या बचा जिसे अब पाऊंँ मैं।
धस रही धरा तल से प्रतिपल,फिर कैसे गीत सुनाऊंँ मैं?
हीरे मोती मणियों से परे
थे स्वपन मेरे भीतर उपजे
हर द्वंद तभी लाचार हुए
सम्मुख थे तुम जब प्यार लिए।
तुम बिन क्या है , सांसें केवल? जाने कबतक गिन पाऊंँ मैं।
धस रही धरा तल से प्रतिपल,फिर कैसे गीत सुनाऊंँ मैं?
©®दीपक झा “रुद्रा”