फितरत
ए फितरत तेरी दुहाई है तेरे दम पे आशनाई है,
तेरी फितरत की सदाकत ने शरारत छुपाई है।
जो झुकी नज़रों से भी ये दिल पे वार कर जाएं ,
जो मिलें तो नाकाम हसरतों को मुशर्त दे जाएं।
गीले तौलियों को सोफों पे गिराना जो हिमाकत है मेरी,
उन्हें सोफों से उठा धूप में सुखाना तेरी फितरत ही सही।
तेरी फितरत की जो आदत का है कुछ ऐसा असर,
बगैर इसके मेरी ज़िंदगी की नहीं कोई गुज़रो बसर।
फितरती फितरत को बदलने की खता कौन करे ,
इसकी कुदरत को बदलने की फ़ज़ीहत कौन करे।
ये बात बिना बात लड़ लेने की जो फितरत है तेरी,
इसके मुक़ाबिल भिड़ने की हिमाकत भला कौन करे ।
तेरी फितरत की फिरासत की है शोहरत सरे आम,
इस नज़ाक़त इस नफ़ासत के हैं कई एक गुलाम।
मेरे फ़ितूर में भी फितरत तेरी जब शिरकत करती है,
मेरी दीवानगी जुनूं की हद के परे इंतजार करती है।
तेरी फितरत में अगर वेगवती गंगा है उतर आने को,
उनका मंज़र है शंकर की जटाओं में समा जाने को।
तेरी फ़ितरत अगर जोश है समंदर की सुनामी की तरह,
ज्यों लिये गोद में धरती है आगोश में आकाश की तरह।
अपनी फितरत की सदाकत तुम्हें क्या मालूम,
तमाम उम्र की उल्फत की है ये दौलत मेरी।
जाती है सदा दिल से क़ातिब को मेरी ये अभी,
करता हूँ दिलोजान वसीयत तेरी फितरत को अभी।
डॉ प्रदीप कुमार शुक्ला
मुरादाबाद।