फितरत
फितरत
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दरीचे-ए-रूह से देखा जो,
उसकी मासूमियत को,
गिरते अश्क की हर बूंद में,
बेगुनाही के सबूत दिखते हैं।
पर इंसान की ये फितरत जो है,
वो तो बेगुनाहों का ही,
कत्ल किया करते हैं।
जिंदगी सोचता,
इस ख्वाब से ऊबर जायें बस,
हम नींद में भी,
निगाहों को खुला रखते हैं।
मौत देती है यदि,
दो पल भी मोहलत जीने की ,
ये फितरत ही है कि,
हम कत्ल नया करते हैं ।
जिंदगी जीने के लिए है,
तो जी भरकर जी लो यारों,
क्यूँ मिटने और मिटाने की,
जिद हम किया करते हैं।
इसे ईमान कह लें या फितरत रब की,
वो तो हर शख्स को, हर मौके पर,
तंबीह किया करते हैं ।
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार (बिहार)
तिथि – 02/07/2023