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19 Feb 2024 · 1 min read

फ़ासले

पल नजदीकियों के बेखबर से हो गए
फ़ासलें दरमियां के हमसफ़र से हो गए।

आँखों ने कुछ कहा, कुछ कहा जुबां ने
हम किसी खामोश बूढ़े शज़र से हो गए।

वो शहर में रोज नई इमारतें बनाता रहा
गांव में माँ-बाप उसके खंडहर से हो गए।

जब चले थे साथ लोगों का कारवां था
देखिये शिखर पर सब सिफ़र से हो गए।

हर वक़्त दिलासों से काम चलता नही
अब लफ्ज़ चुभने लगे खंजर से हो गए।

न फ़लक ने ली खबर न तुम आये इधर
खेत उम्मीदों के सारे बंजर से हो गए।

-देवेन्द्र प्रताप वर्मा”विनीत”

Language: Hindi
1 Like · 134 Views
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