“प्रेम”
तीव्र आवाज मंद हो रहें,
हृदय में पीड़ा पनप रहा,
जीने का राह तलाश रहा,
प्रेम सौंदर्य क्यों हार रहा?
अनंत टीस, उफान हृदय में,
जीने का हक छीन रहा,
निकलते आंसू नयनों के,
प्रेम का आंचल धो रहा।
अधिकार नहीं पलकों को,
एक बार उठकर गिरने की,
अथाह प्रेम बरसने लगा,
मन क्यों पराया लगने लगा?
अंतरमन धिक्कार रहा,
निज पर न अधिकार रहा,
जीवन कठिन है प्रतिक्षण,
शीशे सा शहर बिखर रहा।
सुदूर मन का मीत बसा,
मन व्याकुल, तन शिथिल पड़ा,
लगता अब मिलन आसान नहीं,
फिर मन नगरी औ क्यों निखर रहा?।।
राकेश चौरसिया