“प्रेमचन्द” कथा सम्राट
बीस वर्ष की दरिद्रता की कहन,
शर्म भी न कर सकूँ, मैं वहन
घीसू, माधव तृप्त हुए,
खा कर, बुधिया का ‘कफ़न’
सद्गति ने दिखलाया है,
दलित एकता का गठन
मालिक ने धर रखा था, माँ का क्षीर
‘मंगल’ बड़ा हुआ, पी-पी कर क्षीर में नीर
ध्वस्त हुआ सबका मानक,
देख गरीब, अन्धा ‘रंगभूमि’ का नायक
देखो! नहीं सह सकता और ‘पूस की रात’
‘हल्कू’ जोहता अब मजदूरी की बाट
‘दमड़ी’ बैठा लण्ठ -गवार,
जज साहब थे, पढे़ -लिखे होनहार,
वो भेद लिए थे ‘सभ्यता का रहस्य’
इक ‘होरी’ तब मरा ‘गोदान’ में,
पर कई ‘होरी’ देखे, मैने ‘सौ साल’ में
भिन्न तुम्हारे नायक हैं, विचित्र हैं उनके नाम,
वो झूरी, होरी, धनिया, घीसू, हल्कू, दमड़ी, गया
“प्रेमचंद” तुम लिख गए, ‘तीन सौ’ कथा -कहानी
और ‘आधा दर्जन से अधिक उपन्यास’
‘बीस वर्ष’ के लेखन में समेट लिया,
समस्त सामाजिक वृत्तान्त