प्रकृति एवं मानव
देखा जब मैंने चंदा को
वो अपनी कमी बताता है
आती है अमावस रात जब
मैं पूरा ही खो जाता हूँ।
बोला मैंने उस चंदा को
क्या अपनी कमी तू बताता है
आ देख जरा तू मानव को
वो निज मद में खो जाता है।
देखा जब मैंने सूरज को
वो अपनी व्यथा बताता है
मैं तो हूँ ज्वाला का गोला
गर्मी में सबको जलाता हूँ।
बोला मैंने तब सूरज को
क्यों अपनी व्यथा से व्याकुल तू
आ देख जरा तू मानव को
वो अपने ही प्रिय को जलाता है।
देखा जब मैंने सरिता को
वो अपनी कहानी सुनाती है
बहती हूँ मैं जब धरती पे
कईयों को डुबाये देती हूँ।
फिर मैंने कहा उस सरिता को
अब मेरी कहानी सुन ले तू
आ देख जरा तू मानव को
वो खुद ही खुद को डुबाता है।
देखा जब मैंने पर्वत को
वो अपना दुखड़ा सुनाता है
चढ़ते है मेरे पर कुछ जंतु
मैं उनको गिराए देता हूँ।
तब मैंने कहा उस पर्वत को
क्या अपना दुखड़ा सुनाता है
आ देख जरा तू मानव को
वो अपना ही मीत गिराता है।
देखा जब मैंने अम्बर को
वो पीड़ा अपनी बताता है
मेरी तो नहीं कोई सीमा
मैं किसे छू नहीं पाता हूँ।
मैंने कहा सुन ले ओ अम्बर
तू पीड़ा क्या ये सुनाता है
आ देख जरा तू मानव को
वो निज को नहीं छू पाता है।
देखा जब मैंने तारों को
वो गीत रुदन का सुनाते है
आती है रात तब चमके हम
दिन में तो हम खो जाते है।
बोला मैंने उन तारों को
क्यों रोते हो सारे मिलकर
तुम तो चमको सारे मिलकर
मानव हो तन्हा जाता है।
देखा जब मैंने धरती को
वो झांकी करुण ये बताती है
मेरे पर रहता है जीवन
पर मैं भी कभी फट जाती हूँ।
बोला मैंने फिर धरती को
क्या करुण कथा तू कहती है
तू देख रही है मानव को
यहाँ हर मानव ही टूटा है।
फिर बोला मैंने मानव सुन
सब अपनी कमी बताते है
बस मानव प्राणी ही है ऐसे
जो पर निंदा किये जाते है।
नन्दलाल सुथार ‘राही’