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9 May 2021 · 1 min read

प्यार

खुले संदूक में
फरेबी रिश्तों का
झूठा प्यार
भर रखा है
मैंने
जो समय-असमय
मिलते रहे थे
ठगने के लिए
पूरी तरह से
ठगा गया था
मैं
इसलिए कि
भावना के वेग में
झट बह जाया करता था
मैं ‘इस्तेमाल’होता रहा
उनके द्वारा
जिनका कोई वजूद ही नहीं था
एक चेहरे पर
टिमटिमाते सौ-सौ चेहरे।
खुले संदूक में पड़े
नकली’दुलार’को
कोई नहीं पूछता
चाहता हूँ उसे देकर
एक रोटी ले लूँ
कोई नहीं चाहता
वो स्वार्थ के दलदल में धंसा प्यार
सब भाग जाते हैं
फिर बचता हूँ
मैं ही
अकेला
नक़ली प्यार पर
बिकता हुआ
लुटता हुआ सा
हाँ, मैं ही
सिर्फ मैं ही
लुटता हुआ,बिकता हुआ सा
अपनों के हाथों।
–अनिल कुमार मिश्र,

Language: Hindi
324 Views
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