खिन्न हृदय
हृदय बड़ा खिन्न सा है, दृष्टि गोचर भिन्न सा है
हर तरफ स्वार्थ लिप्सित, रिश्ते नाते सब भाव रिक्त
कहें को सब अपने हैं, देखो तो सब सपने हैं
विचरण हेतु समयाभाव है, ध्यान लगाना योगाभाव है
ईश का वन्दन भी है धोखा, सम्पन्नता को खुद ने रोका
मानव सेवा धन का साधन, दिखता है लक्ष्मी का अर्चन
भान है सबकुछ फिर भी जाने क्यों मन करता चिन्तन
भावि का रवि देखे को चाहे, न माने प्रति का ये दर्शन
क्या ऐसा घोर अँधेरा होगा, कब सूरज चड़ता भोर उगेगा
तृप्त होगी अन्तस् की ज्वाला,क्या सोच का ज्वार शान्त पड़ेगा
प्रश्नों की इस उह पोह में, खिशियों कि इस अंध चाह में
जीवन एक भ्रान्ति बनेगा, अनभिज्ञ स्वयं से सदा रहेगा
न आन का मान रहा है, न कोई स्वाभिमान रहा है
जाग उठो तुम्हें समय पुकारे, जाग उठो अब भविष्य निहारे
सत्य बोध आत्मा क्या है, क्षणभंगुर प्राणी तिनका है
सत्य सनातन शाश्वत को जान, कर स्वयं की तू पहचान
तू रचना एक उत्कृष्ट महान, कर उसी का स्वयं का भान
कर उसी का स्वयं में भान
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