*पुस्तक समीक्षा*
पुस्तक समीक्षा
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पुस्तक का नाम: वीर अभिमन्यु (नाटक)
लेखक: पंडित राधेश्याम कथावाचक
संपादन: हरिशंकर शर्मा
213, 10- बी स्कीम, गोपालपुरा बाईपास निकट शांति दिगंबर जैन मंदिर
जयपुर 302018 राजस्थान
मोबाइल 9257 446828 तथा 946 1046 594
प्रकाशक: वेरा प्रकाशन
मेन डिग्गी रोड, मदरामपुरा, सांगानेर, जयपुर 302029
मोबाइल 9680433181
मूल्य: 249 रुपए
संस्करण: सितंबर 2024
कुल पृष्ठ संख्या: 232
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समीक्षक: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा (निकट मिस्टन गंज), रामपुर, उत्तर प्रदेश 244901
मोबाइल 999 7 615 451
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पारसी रंगमंच का सर्वप्रथम हिंदी नाटक: वीर अभिमन्यु
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पारसी रंगमंच (1850 – 1930) पर पंडित राधेश्याम कथावाचक के प्रवेश से पहले उर्दू का बोलबाला था। नाटकों की शालीनता पर भी पर्याप्त ध्यान नहीं था। 1913 में पारसी रंगमंच की प्रसिद्ध इकाई न्यू अल्फ्रेड कंपनी से पंडित राधेश्याम कथावाचक की ₹300 में नाटक की बात हुई। 1915 में कथावाचक जी ने ‘वीर अभिमन्यु’ नाटक लिख लिया। 1916 में पहली बार यह नाटक खेला गया। जब 4 फरवरी 1916 को नाटक खेले जाने से दो दिन पहले उसकी रिहर्सल हुई, तो रंगमंच के प्रमुख स्तंभ सोराब जी का कहना था कि “अधिक हिंदी स्टेज पर पहुॅंचा कर हम परीक्षण कर रहे हैं। कर तो अच्छा ही रहे हैं, अब भगवान जाने”। (प्रष्ठ 43)
‘वीर अभिमन्यु’ नाटक ने रंगमंच के रिकॉर्ड तोड़ दिए। सबसे ज्यादा दर्शकों को आकर्षित करने वाला नाटक भी यही था और सत्साहित्य की दृष्टि से भी इसने झंडे गाड़ दिए। उस जमाने में शायद ही कोई क्लब ऐसा बचा होगा, जिसके मंच पर कथावाचक जी का ‘वीर अभिमन्यु’ नाटक न खेला गया हो। छपकर इसकी एक लाख प्रतियॉं बाजार में बिकीं । पंजाब विश्वविद्यालय ने इसे हिंदी भूषण और इंटरमीडिएट की कक्षाओं के कोर्स में लगाया।(प्रष्ठ 40, 61)
महाभारत में अभिमन्यु का प्रसंग छोटा अवश्य है लेकिन यह आकाश में बिजली की चमक की तरह संपूर्ण महाभारत पर भारी रहा। अभिमन्यु के चरित्र की तेजस्विता का मुकाबला कोई नहीं कर पाया। पं. राधेश्याम कथावाचक जी ने बड़ी मेहनत से यह नाटक तैयार किया। उन्होंने मैथिली शरण गुप्त का ‘जयद्रथ वध’ पढ़ा। मुरादाबाद के लाला शालिग्राम वैश्य का ‘अभिमन्यु’ नाटक भी पढ़ा। फिर इंडियन प्रेस की श्री द्विवेदी जी की अनुवाद की हुई ‘महाभारत’ पढ़ कर कथानक को अपने अनुसार ढाल कर एक महान ऐतिहासिक चरित्र को साहित्य के स्वर्णाक्षरों में ‘वीर अभिमन्यु’ नाटक के रूप में लिख दिया।
ट्यून पहले, गाना बाद में
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‘वीर अभिमन्यु’ में गानों की भरमार है। यह उस समय पारसी रंगमंच पर खेले जाने वाले नाटकों में गानों की अधिकता के अनुरूप था। कुछ गानों की ट्यून बाद में बनाई गई, लेकिन कुछ की ट्यून पहले बनी तथा गाना बात को लिखा गया। नाटक की शुरुआत में जो मंगलाचरण कहा गया, उसकी ट्यून पहले बनाई गई। कथावाचक जी ने गाना उस पर बाद में लिखा। गाना इस प्रकार है:
जय गणनायक, गणपति, जय गजवदन गणेश/ जय गौरीपति, जगतपति, मंगल करन महेश
उपरोक्त शब्दों के साथ ‘वीर अभिमन्यु’ नाटक हिंदी भाषा का ही नहीं अपितु सनातन हिंदू विचार के साथ आधारभूत रूप से रचा हुआ पारसी रंगमंच का पहला नाटक बन गया। इसे महात्मा गॉंधी और महामना मदन मोहन मालवीय जैसे महान दर्शकों ने मिले।
राष्ट्रीय विचारधारा का पोषण
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नाटक के आरंभिक प्रष्ठों पर ही लेखक ने अपना यह अभिमत नट-नटी के माध्यम से स्पष्ट कर दिया कि आज मनोरंजन के साथ ही साथ अपने देश और अपने समाज का भी कुछ उपकार करना चाहिए। काव्य की भाषा में उसने लिखा:
उबल-उबल कर रो पड़े, अपना रसिक समाज/अभिमन्यु नाटक करो, भारत के हित आज (प्रष्ठ 70)
नाटक का पहला दृश्य पांडवों के शिविर का है, जिसमें भगवान कृष्ण अर्जुन को गीता का उपदेश देते हैं तथा हाथ पर हाथ धरे रहने के स्थान पर हृदय में वीरता के संचार की आवश्यकता बताते हैं। परोक्ष रूप से यह भारत वासियों को अंग्रेजी राज से जूझने के लिए प्रेरित करने वाली विचारधारा है।
दुर्योधन और द्रोणाचार्य के बीच बहस को भी पंडित राधेश्याम कथावाचक ने अंग्रेजी राज के विरुद्ध जनता को आक्रोशित करने के लिए उपयोग में लाने का काम किया है। एक दोहे को इस दृष्टि से देखना उपयोगी रहेगा :
जिस राजा को है नहीं, ऊंच-नीच का ज्ञान/ वह राजा पशु-तुल्य है, और वह राज-मसान (प्रष्ठ 82)
उपरोक्त दोहे के चौथे चरण में एक मात्रा बढ़ रही है। लेकिन उच्चारण करते समय यह लय में आ गई है।
वीर-भाव
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नाटक की मुख्य कथा तब शुरू होती है, जब द्रोणाचार्य चक्रव्यूह की रचना कर लेते हैं। पांडव-शिविर में अर्जुन अनुपस्थित हैं और चक्रव्यूह को तोड़ने की कला कोई नहीं जानता। तब ऐसे में अभिमन्यु ने चक्रव्यूह को तोड़ने की प्रतिज्ञा की। उसने बताया कि जब वह मॉं के गर्भ में था तब उसके पिताजी ने उसकी मॉं सुभद्रा को चक्रव्यूह में प्रवेश करने की कला बताई थी और वह उसे याद है। लेकिन चक्रव्यूह से बाहर निकालने की कला बताने से पहले ही मॉं को नींद आ गई और पिताजी वह कला न तो बता पाए और न मैं सुन पाया।
वीर अभिमन्यु का चक्रव्यूह में प्रवेश वास्तव में मृत्यु के मुख में प्रवेश था। वह भीतर से जानता था कि उसे वीरगति ही प्राप्त होनी है। सात-सात महारथियों द्वारा अनीतिपूर्वक उसे घेर लेने के बाद विश्व इतिहास की इस सर्वाधिक करुणा से भरी कहानी का अंत होना ही था। कथावाचक जी ने जयद्रथ-वध को भी विस्तार से ‘वीर अभिमन्यु’ नाटक में दर्शाया है। नाटक का उपसंहार अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को राजा बनाए जाने के साथ हुआ है।
कथावाचक जी अभिमन्यु के मुख से वीरोचित संवाद कहलवाते हैं:
कायर कभी न होगा, जो क्षत्रिय वंश है/ अर्जुन अगर नहीं तो, अर्जुन का अंश है (प्रष्ठ 89)
चक्रव्यूह तोड़ने के लिए जब अभिमन्यु रणभूमि से प्रस्थान करता है तब उससे पूर्व वह अपनी पत्नी उत्तरा के पास मिलने के लिए जाता है। तब उत्तरा ने अपने पति से कहा:
अपने साथ युद्ध में मुझे ले चलिए।
इसी समय उत्तरा की सखियों ने कहा कि देवी दुर्गा भी नारी थीं। आर्यावर्त के इतिहास में जब राजा दशरथ युद्ध को गए, तब कैकई भी उनके साथ गई थीं। (प्रष्ठ 102, 103)
जब अभिमन्यु अकेले ही रण में जाने के लिए तैयार हो जाता है, तब उत्तरा प्रसन्नता पूर्वक अपने पति को यह कहते हुए विदा करती है:
यदि युद्ध में तुम्हारे शत्रुओं ने पराजय पाई और तुमने जय पाई तो यह पुष्प माला तुम्हारे हृदय पर चढ़ाकर तुमसे आलिंगन करूंगी और यदि आप बलिदान हुए तो मैं भी वीर पत्नियों की तरह अपनी देह को विसर्जन करूंगी और स्वर्ग में आपका दर्शन करुंगी। (प्रष्ठ 104)
जब अभिमन्यु की माता सुभद्रा आती हैं, तब अभिमन्यु के मुख से काव्य पंक्तियों के माध्यम से कथावाचक जी कहलवाते हैं:
जन नीका जो जननी का है, वह शंका कहीं न खाता है
बैरी क्या सम्मुख काल आय, तो उस पर भी जय पाता है (प्रष्ठ 105)
यहॉं जन नीका तथा जननी का शब्दों से कथावाचक जी ने अपनी काव्य कला का चमत्कार दिखाया है। जन नीका का अर्थ है जो जन-जन का प्रिय है तथा जननी का अर्थ है जो अपनी माता का सुपुत्र है।
माता सुभद्रा ने भी पुत्र अभिमन्यु से यही कहा:
देखना लाल कुल को कलंक न लगाना। युद्ध से हार मान यहॉं न आना। हारा हुआ मुंह मुझे न दिखाना। अपनी माता की कोख न लजाना।( प्रष्ठ 106)
इस तरह वीरों को युद्ध के लिए विदा करने के समय भारतीय परंपरा में उनकी पत्नी और माता के द्वारा जो उत्साह-संवर्धन किया जाता रहा है, उसका प्रभावशाली वर्णन वीर अभिमन्यु नाटक में हमें देखने को मिलता है।
जब युद्ध भूमि में अभिमन्यु असाधारण वीरता दिखाते हुए वीरगति को प्राप्त होता है और यह समाचार उसके पिता अर्जुन को महाराज युधिष्ठिर के माध्यम से मिलता है, तब अर्जुन की प्रतिक्रिया भी एक वीर योद्धा के पिता के अनुरूप रही थी :
महाराज, जब उसने ऐसा पराक्रम दिखाया तो उसका शोक ही क्या है ! उसने आपके और मेरे मस्तक को ऊॅंचा किया है। माता के दूध की लाज रखी है।
जो रण में लड़ के मरते हैं, सच्चे बस वही बहादुर हैं/ अभिमन्यु-से लाखों बेटे, इन चरणों पर न्यौछावर हैं (पृष्ठ 149)
हास्य-व्यंग्य का पुट
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नाटक में अपने हिसाब से कथानक में थोड़ा-बहुत परिवर्तन करते हुए कथावाचक जी ने कुछ हास्य-प्रकरण भी जोड़े। राजबहादुर, खटपट सिंह, करमचंद, सुंदरी और चंपा ऐसे ही पात्र हैं। इनके माध्यम से हास्य की सृष्टि भी हुई है और कुछ नवीन सामाजिक सरोकार भी दर्शकों और पाठकों तक लेखक ने पहुंचाए।
एक स्थान पर उन्होंने चालाक लोगों द्वारा जगह-जगह से धन इकट्ठा करके बाद में अपना दीवाला निकाल लेने की प्रवृत्ति को हॅंसी-मजाक में दर्शकों तक पहुॅंचाया है। (प्रष्ठ 111)
हॅंसी-मजाक से ही संबंधित एक स्थान पर उनके छोटे-छोटे और चुटीले संवाद बढ़िया बन गए हैं। एक दृष्टि डालिए :
✓ उस रोज हमने लड़ाई में एक योद्धा के पॉंव काट डाले
✓ पॉंव काट डाले ? पॉंव काटने की क्या जरूरत थी ? सिर ही क्यों न काटा ?
✓ सिर तो बेचारे का पहले ही से कटा था। सिर सलामत होता तो पॉंव ही क्यों काटने देता ?
(प्रष्ठ 109)
प्राचीन इतिहास को पंडित राधेश्याम कथावाचक ने पूरी प्रासंगिकता के साथ परतंत्रता के दौर में जनता के भीतर अपनी संस्कृति, भाषा और परंपरा से प्रेम करते हुए वीर-भाव जागृत करने में किया। इस वीरता का परिणाम देशभक्ति था। इस वीरता के फल-स्वरुप भारत में सहस्त्रों युवकों ने ब्रिटिश राज्य के विरुद्ध संघर्ष का निर्णय लिया। उनकी पत्नी, माता और पिता ने हॅंसते-हॅंसते उन्हें स्वतंत्रता के पथ पर आगे बढ़ाने के लिए विदा किया। भारत की स्वतंत्रता में जिन साहित्यकारों का और उनकी कृतियों का बड़ा भारी योगदान है, उनमें पंडित राधेश्याम कथावाचक और उनके द्वारा रचित नाटक ‘वीर अभिमन्यु’ का प्रथम पंक्ति में महत्वपूर्ण स्थान है।
चौंसठ पृष्ठ की लंबी भूमिका लिखकर संपादक हरिशंकर शर्मा ने पाठकों के लिए पारसी रंगमंच, वीर अभिमन्यु की रचना का इतिहास तथा समकालीन अभिमन्यु-विषयक रचनाओं का प्रस्तुतीकरण करके ‘वीर अभिमन्यु’ नाटक की ऐतिहासिकता को समझने की अच्छी समझ पाठकों को सौंपी है।
वीर अभिमन्यु नाटक का आनंद पढ़ने से भी ज्यादा रंगमंच पर नाटक खेलते हुए देखने में है। इस दृष्टि से 30 नवंबर 2018 को बरेली के संजय कम्युनिटी हॉल में तथा 12 दिसंबर 2012 को बरेली के आइ. एम. ए. हॉल में डॉक्टर अनिल मिश्रा (बरेली) के निर्देशन में ‘वीर अभिमन्यु’ नाटक के मंचन के कुछ चित्र भी पुस्तक के अंत में दिए गए हैं। इनमें वीर अभिमन्यु की भूमिका डॉक्टर अनिल मिश्रा ने ही निभाई है।