पियक्कड़ संत
कभी मर्ज़ी से पीते हैं ,कभी मुफ्त में पीते हैं।
कभी बेशर्म बनकर के ,कभी इज़्ज़त से जीते हैं।
कोई फोकट पिलाये तो ,बना सरकार भी डाले।
पड़े ज़रूरत वतन को तो , जमा पूंजी लगा डाले।
पियक्कड़ संत है हम तो ,दिगम्बर बन के जीते हैं।
कभी मर्ज़ी से …..।
सहारा मांगते हम कब ,कभी जो लड़खड़ा जाये।
चले मस्ती में अपने ही ,भले ही गिर कहीं जाये।
यूँ ही गिरते व उठते फिर ,उठाकर सिर को जीते हैं।
कभी मर्ज़ी से …………..।
कलम घिसाई